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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'आज प्रोग्राम में कौन-सा नाच है?' मोहन ने पूछा।

'तुम्हारा प्रिय सपेरन डांस।'

'तो मैं अभी आया।’

जैसे ही तबस्सुम बाहर गई, मोहन ने मुंह-हाथ धोने के लिए तौलिया उठाकर सामने लगे दर्पण में अपना मुख देखा। उसके होंठो पर मुस्कान खेल गई और वह स्वयं से बोला- 'शहर छोड़कर चला जाऊं...। देखो रेखा, तबस्सुम मुझे तुमसे अलग करने के लिए कैसे-कैसे उपाय सोचती है। वह चाहती है कि मैं कभी भलामानस न कहाऊं.... तुमसे ब्याह करके तुम्हारे उच्च परिवार का एक अंग न बनूं, वल्कि आयु भर उसी के टुकडों पर पलता रहूं।'

चेहरे पर पानी के कुछ छींटे मारकर उसने उसे तौलिए से पोंछा और अलमारी से शराब की बोतल निकालकर दो-एक घूंट गले से उतार लिया। इसके बाद बालकनी में जाकर नीचे झाकंने लगा, जहां तबस्सुम नाच रही थी।

नाचते-नाचते जब उसकी दृष्टि ऊपर मोहन से टकराई- तो मदिरा में डूबी जवानी में एक नव-मादकता छलक उठती। एक ओर मदिरा का प्याला और दूसरी ओर जवानी! परन्तु दोनों निष्फल, उस खाली बोतल की भांति जिसका सम्पूर्ण नशा कोई पी चुका हो।

उसी समय उसकी आंखों के सामने मुस्कराती हुई रेखा की छवि खिंच गई जिसके हाव-भाव में कुछ और ही आनन्द था - कुछ अनोखा माधुर्य था, जो न तो इस मदिरा में था और न इस नर्तकी में।

दूसरे दिन रात के घोर अंधेरे में जब मोहन ने छिपते-छिपाते राणा साहब की कोठी में प्रवेश किया तो सर्वत्र भयंकर सन्नाटा था। वह दबे पांव रेखा के कमरे की खिड़की की ओर बढ़ा और बरामदे के स्तम्भ की ओट में छिप गया। रेखा बिस्तर पर बैठी कोई पुस्तक पढ रही थी मोहन ने दबे स्वर में पुकारा, वह घबराकर इधर-उधर देखने लगी। जब कमरे में कोई दिखाई न दिया तो उसने बिस्तर छोड़ खिडकी से नीचे झांका। एक छाया को देख घबराए स्वर में बोली-’मोहन.. तुम...।' इसके साथ ही पीछे हटकर उसने कमरे की बत्ती बुझा दी। मोहन झट से स्तम्भ छोड़ खिड़की फांदकर भीतर आ गया और तब दोनों दीवार का सहारा लेकर खड़े हो गए। कमरे की अंगीठी में जलते अंगारों की लाल रोशनी में दोनों के मुख इस तरह चमक रहे थे मानों अग्नि में सोना तपाया जा रहा हो।

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