ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
|
9 पाठकों को प्रिय 299 पाठक हैं |
मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
तबस्सुम खिड़की से बाहर झांक रही थी। मोहन ने द्वार बन्द कर दिया। कोट उतारकर कुर्सी पर फेंकते हुए बोला- ‘क्या आज नाच का प्रोग्राम नहीं था?'
तबस्सुम मौन खिड़की से बाहर देखती रही। अपनी बात का कोई उत्तर न पाकर मोहन फिर बोला-
'मैं तुम्हीं से पूछ रहा हूं। कहकर वह उसके और समीप चला आया। तबस्सुम ने घूरकर मोहन की ओर देखा। उसकी आखों से आंसू वह रहे थे।
'तुम रो रही हो.. क्या बात है?' इस बार मोहन ने धीरे- से पूछा और खिड़की के नीचे झांककर देखने लगा। नीचे कोई न था। उसने फिर तबस्सुम से आंख मिलाते हुए पूछा--’यह सब क्या है?'
'अभी-अभी पुलिस आई थी।' तबस्सुम ने भर्राते हुए स्वर में उसे बतलाया।
'क्यों? होटल में कोई घटना हो गई है क्या?
'नहीं!'
'तो!'
'उस रात के उड़ाए हुए हार की पूछताछ करने आई थी।'
'यहां होने का उन्हें कैसे पता चला?'
'मैं क्या जानूं?' आंचल से आंसू पोंछते हुए उसने उत्तर दिया।
'क्या पूछताछ हुई?'
'अभी तो केवल उन्हीं व्यक्तियों के नाम पूछे गए हैं जो थियेटर में काम रहे हैं।'
'तब मैं इस नामावली से बाहर हूं।'
'परन्तु कब तक? यही मैं सोच रही हूं।'
'घबराओ नहीं.. जब तक मैं हूं, तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड सकता।'
‘मुझे अपनी चिन्ता नहीं, तुम्हारी है.. ’
'मेरी चिन्ता मत करो' ‘एक बात कहूं, मानोगे!'
'क्या?'
'यह शहर छोड़कर कहीं दूर चले आओ।'
'असम्भव.. मैं तुम्हें कैसे बताऊं कि यह मुझसे नहीं.....' उसी समय घण्टी बजी। तबस्सुम का बुलावा था। नीचे बैठे दर्शक उसका नाच देखने को व्याकुल थे।
|