ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'तो फिर तुम्हारी चंचलता, सहेलियों के संग हंसी-खेल, घर में आते ही बाबा को कॉलेज की बातें सुनाना.. यह सब कहां लुप्त हो गए?'
'जी... ओह.. वास्तव में बाबा! परीक्षा समीप आ रही है न, इसलिए इन प्रोग्रामों से कुछ समय के लिए छुट्टी ले रखी है।' ‘तो हमारी बेटी अब की परीक्षा में असाधारण पोजीशन प्राप्त करना चाहती है... बहुत अच्छा... जाओ, चाय तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।'
रेखा मन ही मन अपनी इस कही हुई बात पर मुस्कराई और लपककर अपने कमरे में चली गई। दीदी को देखकर नीला भी उसके पीछे भाग गई।
दोनों के चले जाने पर राणा साहब ने पत्नी को हल्की चुटकी काटते हुए कहा-’पहले तो कभी रेखा ने परीक्षा समीप आने पर स्वभाव नहीं बदला था और फिर यह परीक्षा भी कोई वार्षिक नहीं।'
'इसमें स्वभाव की क्या बात है... ज्यों-ज्यों सयानी होती जाएगी, बचपना दूर भागता जाएगा।'
'तो कुछ दिन पहले कौन-सी बच्ची थी।'
'लडकियों को बढ़ते और बदलते क्या देर लगती है?
'यह तुम जानों.... मैंने समझा कोई ऐसी बात अवश्य है जिसे बतलाने में वह झिझकती है।'
राणा साहब का अनुमान कुछ गलत न था। रेखा में हुए परिवर्तन को वह भली प्रकार अनुभव कर रहे थे। रेखा ने भी बाबा की बात पर गम्भीरतापूर्वक ध्यान दिया। वह उनके सम्मुख खुश रहने का प्रयत्न करने लगी, किन्तु मन की व्यग्रता छिप न सकी। घर में सभी यह अनुभव करने लगे जैसे वह किसी धुन में खोई-खोई-सी रहती है। यह शिकायत उसकी कुछ सहे- लियों ने भी की।
इस अनोखी व्यग्रता में वह एक माधुर्य का अनुभव करने लगी। भूल से कभी-कभी उसे बाबा का ध्यान आ जाता तो एकाएक ही अज्ञात डर से कांप जाती। वह जानती थी कि बाबा वास्तविकता जान लेनें पर उसे जीवित न छोड़ेंगे।
मोहन मुंह से सीटी बजाता प्रसन्न मुद्रा में होटल की सीढ़ियां चढ़ रहा था। अपने कमरे के समीप पहुंचते ही उसने असावधानी से द्वार को पांव की एक ठोकर लगाई और वह धमाके से खुल गया।
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