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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'कहां चल दी? उसने निराश स्वर में पूछा।

'यह भी कोई पूछने की बात है...'

'फिर कब मिलोगी?'

'कल इसी समय।'

अगले दिन से हर सांझ उन दोनों का मिलन एक नियम बन गया। उधर घडी की सुइयां पांच के अंक पर आती कि रेखा के मनो-मस्तिष्क में सीटी की मधुर ध्वनि गूंजने लगती और वह पागल होकर भागती हुई मोहन की वांर्हो में समा जाती।

'प्रेम-वार्ताएं तो उसने बहुत सुन रखी थीं, परन्तु उसमें छिपे उल्लास को अनुभव करुने का यह उसके जीवन में पहला अवसर था। वह प्रतिदिन मोहन की ओर खिंचती चली जा रही थी।

हर सांझ नगर का कोई नया एकान्त कोना होता, जहां दोनों उफनती वासना को तृप्ति प्रदान करते।

कभी नदी किनारे नाव-पर्यटन, कभी चिड़ियाघर या कोई कुंज और कभी किसी प्राचीन खण्डहर की सैर होती।

मोहन अपनी इस असाधारण विजय पर प्रफुल्लित था। वह इस सुन्दर पंछी को कभी हाथ से न जाने देगा। उसे ज्ञात था कि यह पंछी सीधा राह उड़कर नहीं आएगा, आएगा एक स्वर्ग-पिंजरे में वन्द होकर। उसे विश्वास था कि राणा साहब को उसके प्रेम के लिए भारी मूल्य देना पड़ेगा।'

एक सांझ राणा साहब गोल कमरे में बैठे पत्नी के साथ ताश खेल रहे थे कि धीरे से द्वार खोलकर, दबे-पांव रेखा ने भीतर प्रवेश किया। राणा साहब ने दृष्टि ताश के पत्तों पर लगाए हुए ही पुकारा-’रेखा...'

वह ठिठककर रुक गई और बोली-’नमस्ते बाबा! ’

'आ गई कॉलेज से? ’ उसे अपने समीप आने का संकेत करते हुए बोले।

'जी...' और वह पास आ गई।

'कुछ दिनों से देख रहा हूं, तुम उदास-सी रहने लगी हो।'

‘नहीं तो...'

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