ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
मानो वह उजाला उसके प्रेम को नंगा कर देगा जो अब तक उसके मन में अंगड़ाई ले रहा था।
दूसरे दिन शाम को ठीक पांच बजे मुंह से सीटी बजाने की आवाज आने लगी। सुनकर रेखा पागल-सी हो उठी और सबकी दृष्टि बचाकर छिपती-छिपती पिछवाड़े की दीवार की ओर भागी। मोहन उसकी प्रतीक्षा में खड़ा था। उसके आते ही उसक हाथ पकड़ते हुए बोला-
'मैं सोच रहा था, जाने तुम आओगी भी या नहीं।'
'पुरुषों की भांति हम निर्मोही थोड़े ही हैं।'
'परन्तु स्त्रियों से कम...'
रेखा ने यह सुनते ही उसकी उंगली मरोड़ दी। वह तड़प- कर रह गया। प्यार से उसकी ओर देखते हुए वोला- ‘उफ। इस तरह का प्यार तो बड़ा महंगा है?'
'बस, इतने में ही तड़प उठे।'
'नया जो ठहरा.. अभ्यस्त हो जाऊंगा।
'रेखा! चलो नदी किनारे चलें।'
'आज नहीं-नीला की तबियत ठीक नहीं है।'
‘नीला कौन?'
'मेरी छोटी बहन....’
'और... मैंने समझा था, तुम अकेली हो।'
'नहीं, साथ में मेरे बावा, मां जी और शम्भू भी है।'
'शम्भू... तुम्हारा छोटा भाई।'
'भाई नहीं, नौकर... हम केवल दो बहन ही हैं।'
'चलो, नीला के कारण तुम्हारे घरवालों से परिचय तो हो गया।'
'केवल जबान से।'
'किसी दिन साक्षात्कार भी हो जाएगा।'
'वह कब?'
'जब तुम मेरी बन जाओगी।'
यह सुनकर रेखा लजा गई और लौटने लगी।
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