ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'तुम्हें देखने चला आया.. कल सांझ को तुमने बडी प्रतीक्षा करवाई?'
'विवश थी, घर में कुछ अतिथि आ गए थे, अच्छा, अब तो तुमने मुझे देख लिया न...'
मोहन ने देखा, भय से वह कांप रही थी। पिपासातुर दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए वह बोला-’तो क्या लौट जाऊं?'
‘भलाई इसी में है।'
वह निराश दष्टि से खिड़की की राह से बाहर देखने लगी।
‘मोहन।' रेखा ने सांस रोककर अत्यन्त ही क्षीण स्वर में कहा।
'क्यों?'
'बुरा तो नहीं मान गए?'
'रात में इतनी दूर से छिपता-छिपता इसीलिए आया था कि शायद तुम्हारे निकट बेचैन हृदय कुछ चैन पा सकेगा, किन्तु तुम मुझसे दूर-दूर रहना चाहती हो, यह मैं आज ही जान सका।'
रेस्त्रा ने अपने रुके हुए सांस को ढील दी और तनिक उसके और समीप आ गई। मोहन को अव उसके हृदय की धड़कन स्पष्ट सुनाई दे रही थी। वह धीरे से बोली- 'मोहन, तुम कौन हो, क्या करते हो... और क्या चाहते हो... मैं कुछ नहीं समझती, किन्तु इतना अवश्य अनुभव करती हूं कि तुम्हारे बिना मैं भी अपने में कोई कमी अनुभव करती हूं।' ‘सच रेखा?' निराश होठों पर मुस्कान लाते हुए मोहन ने रेखा को जोर से खींचकर अपने सीने से लगा लिया।
घड़ी ने टन की आवाज की और दोनों कांपकर एक-दूसरे से अलग हो गए। रेखा ने लजाकर मुंह दूसरी ओर कर लिया। ‘कल मिलोगी?
'क्यों नहीं.. परन्तु कहां? रेखा ने झुकी दृष्टि से ही पूछा।
'यहीं तुम्हारी कोठी के पीछे।'
रेखा ने स्वीकारात्मक् सिर हिला दिया। मोहन चट से खिडकी फांदकर अंधेरे में विलीन हो गया। रेखा के हृदय की धडकन अब तक कम न हुई थी। भय उसको जकड़े हुए था। उसके मन ने चाहा कि बढ़कर उजाला कर दे, पर साहस न कर सकी। वह उसी अंधेरे में रहना चाह रही थी।
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