ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'वह कैसे?'
मोहन ने तिरछी दृष्टि से उसके मदमाते यौवन को देखा और उसके वक्ष को चूमती हुई चुनरी को खींचते हुए बोला- ‘ऐसे।'
'यह क्या अशिष्टता है?' रेखा जोर से चिल्लाई, परन्तु वह हंसते हुए चुनरी लेकर नदी की ओर भागा। लज्जानवत रेखा भी तांगे से नीचे उतरकर उसके पीछे दौड़ी।
थोडे ही समय में मोहन उसकी दृष्टि से ओझल हो गया। नदी का जल शान्त था। पेड़ों के झुण्ड में किलोलें करते पक्षियों का कलरव रेखा को अत्यन्त प्रिय लग रहा था, किन्तु खुले वातावरण का सन्नाटा उसके मन में भय की वृद्धि कर रहा था। फिर भी मोहन की उपस्थित उसे धैर्य दे रही थी। न जाने कौन-सी शक्ति उसे अकेले मोहन के पीछे खींचे जा रही थी।
उसने उन वृक्षों के झुण्ड में दृष्टि दौड़ाई। परन्तु मोहन का कहीं पता न था। उसने दो-एक बार उसका नाम लेकर पुकारा भी, पर उसकी आवाज उसी सन्नाटे में गूंजकर रह गई। अचानक उसके मुंह से जोर की चीख निकल गई और वह सिर से पांव तक कांप गई। किसी ने उसका हाथ पकड लिया था और जोर से अपनी ओर खींच रहा था।
घबराहट पर अधिकार पाते ही उसने देखा - मोहन घास के एक ढेर पर पीठ टिकाए लेटा हुआ है। रेखा को भी खींचकर उसने उसी ढेर पर गिरा लिया। उसकी चुनरी का एक पल्ला दांतों के नीचे दबाते हुए वह बोला-’क्यों अब तो मुझसे डर नहीं लगता?'
'ऊहूं।' रेखा के मन की धड़कन अब कम हो चुकी थी। आज प्रथम बार यह शब्द कहते हुए उसने मोहन को मदभरी आंखो से देखा तो मोहन भी एकटक उसकी ओर देखते हुए बोला- 'रेखा!'
'हूं।' और एक तिनका लेकर दांतों से कुतरने लगी।
'मुझे यूं मत देखो, वरना मैं पागल हो जाऊँगा।'
'पहले ही कौन-सी कमी थी?'
'तो मैं पागल हूं?
'पागलों की भांति हर समय किसी का पीछा करते रहना, इससे बढकर और क्या प्रमाण चाहिए।’
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