ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'ओह.. यदि यह पागलपन है सो मैं हमेशा ही पागल बना रहना चाहूंगा।'
'पर पागलपन ठीक नहीं, शीघ्र ही इसका इलाज करवा लो।' यह कहते हुए वह जाने के लिए उठ खड़ी हुई। मोहन ने फट उसकी बांह पकड़ ली।
'छोडो, मुझे देर हो रही है।' रेखा ने तुनककर कहा।
'तो इस रोगी का इलाज कौन करेगा?'
'मैं कोई डाक्टर थोडे हूं..'
'यह रोगी की आंखों मे देखो....।' मोहन ने एक ही झटके से उसे घास के देर पर पुनः गिरा लिया और उसके शरीर में गुदगुदी करने लगा। रेखा की हंसी छूट गई। वह हाथ-पांव मारकर उसके घेरे से बाहर भाग जाने का व्यर्थ प्रयत्न करने लगी। दोनों की शरारत से भरी हंसी उस वातावरण की शाँति को भंग कर रही थी।
दूर सड़क पर खड़े घोड़े के अचानक हिनहिनाने से दोनों की हरकतें वन्द हो गईं और फिर दोनों ने एक-दूसरे को विचित्र दृष्टि से देखा।
एकाएक वह उठ खडी हुई और बोली- 'मोहन, सांझ हो गई... अब लौट चलो।'
'जैसी तुम्हारी इच्छा... पर एक वात... ’.
'क्या? ’
'वचन दो कि कल फिर मिलोगी।'
‘अच्छा, वचन दिया.. अब चलो, नहीं तो बाबा बरस पड़ेंगे।'
मोहन आज की इस असाधारण जीत पर मन-ही-मन मुस्करा पड़ा और सड़क की ओर बढ़ चला। रेखा लजाई-सी, घवराई-सी, मन में एक अज्ञात भय लिए पीछे हो ली।
रेखा जब अपनी कोठी के बरामदे में पहुंची तो भय से उसकी सांस रुकती-सी जान पडी। वह चोरों के समान दबे पांव बरामदे को पारकर अपने कमरे की ओर जाने लगी। उसी समय अचानक राणा साहब सामने से आ गए और उसे यूं जाते देखकर ऊंचे स्वर में बोले-’रेखा।'
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