ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'आपकी इच्छा...।'
ललचाई आंखो से देखते हुए उसने तांगा बढ़ा दिया। रेखा ने उसे जाते हुए देखा और जाने क्या सोचकर कह उठी- ‘ठहरिए।'
मोहन ने एकाएक ही तांगा रोक दिया। उसके मुख की मलिनता हर्ष में वदल गई। रेखा लपककर तांगे में आ बैठी। मोहन ने घोड़े को सड़क पर बढ़ाते हुए पूछा- 'निर्णय इतना शीघ्र कैसे बदल दिया?'
'आपके रुष्ट हो जाने के भय से? ’
'इस भय के लिए धन्यवाद।' मोहन ने तांगा और तेज कर दिया।
'इधर किधर? जाना तो सामने है।'
'थोडा चक्कर काट लिया जाए.... सैर ही सही। मोहन ने तांगा पहले से और भी तेज कर दिया। रेखा घबराने लगी। उसने देखा कि मोहन तांगे को शहर से बाहर लिए जा रहा है। वह जरा उसके समीप होकर बोली- 'मोहन, मुझे कहां लिए जा रहे हो?'
'घबराओ नहीं.. कहीं दूर नहीं चल रहा हूं।'
थोड़े ही समय में मोहन तांगे को नदी के किनारे तक ले आया।
रेखा ने तुनककर कहा-’अच्छा नहीं किया तुमने।'
'क्यों भला?'
'इधर क्यों ले आए?'
'इसमें घबराने की कोई बात नहीं.. मैं जो तुम्हारे संग हूं कोई भी जानवर तुम तक आने का साहस नहीं करेगा।'
'सबसे बड़े जानवर तो तुम हो, जिससे मुझे भय लग रहा है।'
'अच्छा, तो मैं जानवर हूं।'
'अब बात को बतंगड का रूप न दो। मुझे देर हो रही है।'
'तो लाओ पहले किराया।'
'वाह... मंजिल तो अभी आई नहीं और किराया पहले।' ‘यहां तो यही चलता है।'
'जाओ, नहीं देती।' वह मुस्कराहट को होंठो के बीच दबाते हुए बोली।
'हम तो ले ही लेंगे।'
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