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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

उसी दिन रेखा लम्बे कदम रखती बाजार से लौट रही थी। सड़क पर एक तांगा इस तेजी से उसके समीप से गुजर गया कि वह स्वयं कठिनाई से गिरते-गिरते बची। बिखरी हुई पुस्तकों को सड़क पर से उठाते हुए क्रोध में चिल्लाई- 'अन्धा कहीं का।'

तांगेवाले ने तांगा रोक दिया। मुड़कर बोला- 'आपने मुझसे कुछ कहा?'

'हां तुमसे... ओह मोहन... तुम!'

'जी, मैं...'

'यह क्या अशिष्टता है.. यदि नीचे आ जाती तो...'

'बचकर निकलना तो मेरा काम है।'

चोर जो ठहरे..'

'रेखा!'... मोहन ने गम्भीर बनकर कहा।

'ठीक कहती हूँ, चोर कई प्रकार के होते हैं...।' रेखा ने झट बात बदल दी! उसने चपलता से पूछा-’यह तांगा किसका है?'

'मुझे नौकरी मिल गई है।'

'तांगा चलाने की?'

'नहीं.. एक होटल में। यह तांगा तो होटल के मालिक का है आज घूमने के लिए मांग लाया हूं।'

'अकेले ही।'

'होटल से तो अकेला ही चला था परन्तु, अब साथी मिल गया है?'

'कौन?'

‘तुम...'

'मुझे तो नहीं जाना है।' रेखा यह कहते हुए आगे बढ़ चली।

'रेखा।' तांगे को धीरे से आगे बढाते हुए वह बोला।

'क्या है?' कुछ लापरवाही से उसने कहा।

दोनों चुप होकर विचारमग्न हो गए।

'क्या अब भी मुझसे तुम घृणा करती हो?'

'नहीं तो... मुझे घर शीघ्र पहुंचना है.... बाजार में दवा लेने आई थी।’

'आओ मैं शीघ्र पहुंचा दूंगा।’

'थोड़ी दूर तो है फिर कभी।'

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