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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

‘क्यों नहीं, क्यों नहीं..... यूं ही देखकर याद आ गया... आप पुलिसवालों के स्वभाव से तो भली भांति परिचित हैं। तिवारी ने हंसते हुए बात का पहलू बदल दिया और राणा साहब को भी उनकी हंसी में सम्मिलित होना पड़ा।

उनकी इस हंसी को मालती ने आकर भंग कर दिया। राणा साहब ने उसकी ओर अर्थभरी दृष्टि से देखा तो वह बोल उठी-’हम लोग जा रहे हैं चाचाजी।'

'कहां बेटी? ’

'नदी के किनारे...... रेखा और हम सब सखियां..... पिकनिक का प्रोग्राम है।'

'कौन-कौन जा रहा है?'

'मैं कुसुम, कांता, कमला और सब..'

'तो जाओ, पर माझी से कहना अधिक दूर न ले जाए.. ’

किनारे-किनारे रहना।'

'जी अच्छा!'

मालती, रेखा को खींचती हुई दूसरे कमरे में ले गई। राणा साहब और तिवारी उनकी चंचलता देख मुस्करा पड़े।

'मालती, तुम सबको इकट्ठा करो, मैं जरा कपड़े बदल लूं।' रेखा ने जाते हुए कहा।

'बडी शौकीन हो... ’

नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। यह साड़ी बहुत भारी है, भाग-दौड़ के लिए उपयुक्त नहीं.... कोई हल्की पहन लूं..... मालती मुस्कराते हुए सबको इकट्ठा करने चली गई और रेखा गुनगुनाती हुई अपने कमरे में। कमरे में प्रवेश करते ही वह चौंककर रुक गई। एक लिपटा हुआ कागज खिड़की के रास्ते उसके पांव पर आकर गिरा, उसने लपककर बाहर झांका, वहां कोई न था। उसने मुड़े कागज को खोला। पत्थर के गिर्द लिपटे हुए कागज में लिखा था-’जन्मदिन पर एक तुच्छ उपहार'.... एक गरीब का हृदय.. मोहन।'

रेखा ने उसे दो-एक बार पढ़ा और मन ही मन बड़बड़ाई-'ढीठ कहीं का!’

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