ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
तीन
राणा साहव की कोठी पर आज बड़ी धूमधाम से रेखा का जन्मदिन मनाया जा रहा था। रेखा की सब सहेलियां, राणा साहब के सव मित्रगण और सम्बन्धी, पार्टी में सम्मिलित थे। एक ओर बडी मेज पर उपहारों का ढेर लगा हुआ था।
रेखा पास ही खड़ी कनखियों से उनको देखे जा रही थी और मन-ही-मन उन व्यक्तियों का नाम दोहरा रही थी, जिन्होंने वह बहुमूल्य उपहार उसे भेंट किए थे।
‘हैलो रेखा...' पास से गुजरते इन्स्पेक्टर तिवारी ने उसकी विचारधारा को भंग करते हुए कहा।
'नमस्ते चाचाजी।'
'आज तो बडी प्रसन्न दिख रही हो।'
'क्यों चाचाजी. आपको यह प्रसन्नता नहीं भाई क्या?'
‘मुझे...' वह मुस्कराते हुए तथा अपनी मूछों को संवारते हुए बोले-'सच पूछो तो जलन हो रही है!'
'वह क्यों?'
'काश! मेरे माता-पिता भी मेरा जन्मदिन इसी धूमधाम से मनाते।'
दोनों इस पर हंसने लगे, परन्तु तिवारी एकाएक चुप हो गया। रेखा भी मौन होकर उसकी विस्मित दष्टि को भांपने लगी जो उसी को घूरे जा रही थी। बड़ी कठिनाई से वह पूछ पाई- 'क्या हुआ चाचाजी?'
'बेटा, यह हार कहां से आया?'
'बाबा ने जन्मदिन पर उपहार में दिया है!'
राणा साहब ने जब तिवारी को रेखा के गले में पड़े हार को यूं ध्यानपूर्वक देखते देखा तो पास चले आए और बोले- ‘क्यों तिवारी! पसन्द है?'
'जी.. बहुत सुन्दर है... परन्तु...'
‘परन्तु क्या? ’
‘ऐसे ही एक हार की मुझे भी खोज है।’
‘एक जैसे दो हार बाजार में नहीं हो सकते क्या? ’
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