ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
कॉफी पीते समय उसकी दृष्टि स्टेज पर नाचती हुई नर्तकी पर लगी रही। नाच समाप्त हो गया। वह स्टेज से उतरी और कुछ समय पश्चात् कपड़े बदलकर उसके साथ वाली कुर्सी पर आ बैठी।
'अब तक कहां थे मोहन?' उसने अजनबी को सम्बोधित करते हुए पूछा और मेज पर कुहनियों का सहारा लेकर अपना चेहरा हथेलियों में रख लिया।
'जरा नदी के किनारे घूमने गया था।'
'यह कोई सनक प्रतीत होती है, घूमना अकेले हुआ या..?'
'अभी तो अकेले ही, परन्तु शीघ्र ही साथी मिलने वाला है।' लापरवाही से मोहन ने उत्तर दिया और एक ही घूंट में बची हुई काँफी गले में उतार गया।
मोहन कुर्सी छोड़कर होटल में ऊपर जाने वाली सीढ़ियां चढ़ गया। वह नर्तकी भी उसके पीछे चली आई। वे उसी होटल में रहते थे।
जब मोहन कमरे में आया तो नर्तकी ने उसके कंधों पर हाथ रखते हुए नम्रता से पूछा-’कुछ दिनों से तुम बदलते क्यों जा रहे हो?''
'मैं अपने जीवन की दिशा बदलले जा रहा हूं!
'क्या अकेले ही? ’ तबस्सुम ने मलिन मुख से पूछा। यह नर्तकी का नाम था।
'हां तबस्सुम ! क्या तुम नहीं चाहती कि मैं आराम और इज्जत का जीवन व्यतीत करूं?'
'तुम्हें रोकता कौन है और सोचो तो, आराम क्या यहां कम है? रही इज्जत की बात, वह तुम खो बैठै हो।'
'चोरों की भांति दिन-रात मुंह छिपाए, मस्तिष्क में चिंताएं लिए खानाबदोशों की तरह, आज यहां कल वहां, क्या इसी क्रो तुम आराम कहती हो?'
'और हम कर भी क्या सकते हैं? ’
'मैं खोई हुई इज्जत वापस ले आऊंगा।'
'वह कैसे?'
'एक अमीर और ऊंचे घराने की लड़की से विवाह करके।' तवस्सुम उसकी बात सुनकर हंसने लगी। उफनती नदी के समान उसकी इस हंसी में इतना वेग था कि मोहन सिर से पांव तक कांप उठा। वह क्रोध में चिल्लाया- 'तबस्सुम...।'
तवस्सुम चुप हो गई तो वह फिर बोला-’इसमें हंसने की क्या वात है?'
'शिक्षा केवल आठवीं तक. संसार में अनाथ. घर-बार नदारद..... और धन्धा....? उसने पुन: अट्टहास किया।
मोहन से यह सहन न हो सका। उसने आगे बढ़कर, हंसी से लाल हुए उसके गालों पर थप्पड़ दे मारा। एकाएक मौन होकर वह मूर्ति सी जड़ हो गई।
दोनों एक-दूसरे को यूं देखने लगे जैसे किसी अखाड़े में उतरे दो पहलवान दंगल से पूर्व एक-दूसरे को देखते हैं।
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