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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

रेखा ने लज्जा से आखें झुका लीं और अपनी कंपकंपी छिपाते हुए कहा--’मेरी विवशता देख यह मत समझना कि तुम्हारी कहानी सुनकर मैं तुम्हारे निकट आने लगी हूं!’

‘और तुम भी यह न समझना कि अपनी गोद में एक सुन्दर चांद देखकर मैं सुध-बुध खो बैठा हूं।’ यह कहते ही उसने अपनी बाहें ढीली कर दीं और रेखा को बहते पानी में छोड़ दिया।

रेखा के मुख से एक चीख निकल गई, वह बड़ी कठिनाई से सम्भलकर उठी। उसके कपड़े पानी में भीग गए। क्रोध से कांपते हुए होंठो से उसने भला-बुरा कहना चाहा, किन्तु शब्द उसके मुह में आकर रुक गए। वह दूसरी ओर खड़ा उसकी विवशता पर हंसे जा रहा था।

रेखा ने शीघ्रता से पुस्तकें उठाई और गीली साड़ी को अपने गिर्द लपेटते हुए तेजी से घर की ओर भागने लगी। अजनबी वहीं खडा उसकी घबराहट, तेजी और भीगी जवानी को निहारता रहा।

जब वह दृष्टि से ओझल हो गई तो उसे होश आया। वह अपने भीगे कपड़ों से पानी निचोड़ने लगा। आकाश अभी बादलों से घिरा हुआ था, जिससे सांझ को ही रात का भास होने लगा था।

वह भारी पांव उठाता हुआ सड़क पर बढ़ गया। चन्द क्षण की इस हंसी से उसके फेफड़ों में पीडा-सी होने लगी थी। आज बहुत दिनों बाद उसके होठों पर हंसी आई थी।

वह किसी मानसिक खींचातानी में उलझा हुआ बढ़ता गया, उसके मस्तिष्क पर, रेखा की भीगी जवानी अपना प्रतिबिम्ब डालती रही और उसके शरीर में बिजली की-सी एक तरंग दौड़ती रही।

इसी धुन में मस्त उसने किंग्जवे होटल में प्रवेश किया। सामने होटल की स्टेज पर एक चंचल नर्तकी नृत्य कर रही थी।

दखने वाले उसे आँखों ही आँखों में उसे पी जाना चाह रहे थे।

अजनबी असावधआनी से भीड़ को चीरता हुआ कोने में रखी एक सिंगल मेज पर जा बैठा। नर्तकी ने उसे देखा। दृष्टि चार होते ही वह मुस्करा दी और नृत्य में पहले से भी अधिक हाव- भाव प्रदर्शित करने लगी। अजनबी ने पास खडे व्वॉय से एक कप काफी लाने को कहा।

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