ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'तो बात यह है। आई एम वेरी सॉरी ! पहले ही कह दिया होता।' सहानुभूति जताते हुए रेखा बोली। ‘आपने अवसर ही कब दिया जो कह देता।'
रेखा ने बाहर देखा। वर्षा थम चुकी थी, पर वे अब तक वार्त्तालाप मं मग्न थे। जब दोनों बाहर जाने के लिए निकले तो एकाएक रेखा रुक गई और बोली,’यह क्या...?'
दोनों ने झांककर देखा। बरामदे के साथ वाली चौड़ी नाली में बरसात का पानी बड़े जोरों से बह रहा था और काफी ऊंचा चढ़ आया था। वह प्रश्नसूचक दृष्टि से अजनबी की ओर देखने लगी। वह मुस्कुराया और बोला – ‘थोडा सा तो पानी है। नदी थोड़े ही है जो बह जाओगी। छलांग मारो और जग फतह!’ कहते हुए वह छलांग लगाकर पार हो गया।
'परन्तु मेरे सब कपड़े भीग जाएंगे।’
'मेरी सहायता की आवश्यकता समझें तो ले सकती हैं?'
‘वह कैसे?'
अजनबी पांव जमाकर बहते हुए पानी में खड़ा हो गया और बोला--’अपना हाथ मेरे हवाले कीजिए... पुस्तकें वहीं रहने दीजिए-मैं बाद में ले जाऊंगा।'
न जाने पानी कब तक उतरे? यह सोचकर रेखा ने पुस्तकें वहीं रख दी और सहायता के लिए कांपता हुआ अपना हाथ उस अजनवी की ओर बढा दिया। परन्तु यह उसकी घबराहट पहले की घबराहट से भिन्न थी, मन की धडकन पहले जैसी न थी। उसमें अब भय नहीं एक विशेष कंपकंपी सन्निहित थी, जिसमें एक अनजाने उल्लास की तरंग थी! वह कुछ क्षण खड़ी रही; तर्क-वितर्क करती रही।'
'आओ न।' अजनवी की आवाज ने उसे चौंका दिया और उन्हीं विचारों में उसने अपना हाथ उसकी ओर बढा दिया। वह सहमी-सहमी-सी उसका सहारा लेने को बढी। अजनबी ने झट से उसे खींचकर अपनी बाहों में उठा लिया और मुस्कराते हुए बोला-'क्या अनोखी बात है... कुछ समय पहले तो तुम घबराकर कोसों दूर भागना चाहती थीं और अब एक फूल की भांति मेरी झोली में हो।’
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