ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
मालती और दूसरी सखियों के आने की आहट सुनते ही उसने झट उस कागज को मुट्ठी में भींचकर खिड़की से बाहर फेंक दिया। थोड़े ही समय बाद वे मोटर में बैठ नदी की ओर चल दीं। पवन के हल्के मधुर झकोरे, नदी का निर्मल जल, तट पर दोनों ओर मखमली दूब की हरी सेज और इन सब पर छाई जवानी की मस्ती को देख वे हर्ष और उल्लास से फूली न समाती थीं। भागती-कूदती मृगों के झुण्ड की भांति किलोलें करतीं यौवन-मदमाती सहेलियों की हंसी की मधुर झंकार से वातावरण गूंज उठा।
'क्यों रेखा! कौन-सी नाव ली जाए?' मालती ने पूछा।
‘बीबीजी, यह सामने बाली..' एक नाविक ने उठते हुए कहा।
'नहीं-नहीं, यह तो बहुत छोटी है।'
'बहन जी, यह देखिए।'
'उतनी बडी तो नहीं है, फिर भी काम चल सकता है।’ मुंह बनाकर मालती बोली।
'मन बड़ा होना चाहिए, काम तो चल ही जाता है।' दूसरे नाविक ने उत्तर दिया।
उसकी बात सुन रेखा की भृकुटी तन गई। वह सक्रोध बोली-- ‘व्यक्ति चालाक दिखाई पड़ता है... दाम पहले ही ठहरा लो मालती।'
'क्या लोगे?' मालती ने पूछा।
'जो आप दे दें।’
'पीछे झगडा किया तो? ’
'नहीं, ऐसा नहीं होगा।'
मालती ने आंख के संकेत से सबको बुलाया। सब नाव में चढ़ गईं। नाव डगमगाई तो सब एक-दूसरे का सहारा ले संभलकर अपने-अपने स्थान पर जम गईं।
नाव धीरे-धीरे नदी के, किनारे के साथ-साथ बढ़ती जा रही थी। नाविक चप्पू चलाते-चलाते छिपी दृष्टि से रेखा को देख लेता। रेखा को उसका यूं देखना अच्छा न लगता। वह मुंह मोड़कर बातें करने लगती।
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