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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'भगवान के लिए यहां से चले जाओ.. बाबा आने बाले हैं।'

'तो डर कैसा... तुम अब काफी निडर हो चुकी हो।'

'मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं, मुझे नष्ट न करो। उन पत्रों में रखा ही क्या है?'

'मेरा जीवन और तुम्हारी मृत्यु.. कहां हैं वे?'

'मैंने जला दिए।'

'ऐसे ही तुम मेरा मन भी जला सकती हो।'

'मोहन ऐसा न होगा... मुझे विचार करने का अवसर दो।'

'लो एक अवसर और सही... परन्तु मुझे धोखा देना उतना सरल नहीं जितना तुमने समझ रखा है।'

'विश्वास रखो... आज रात दस बजे...'

मोहन के होठों पर एक भयानक मुस्कराहट दौड़ गई। बैठकखाने से जाने से पूर्व वह रेखा से बोला, ’मैं जानता हूं आज का उत्तर मेरे लिए घृणा का सन्देश होगा, परन्तु विश्वास रखो, मैं उसे भी प्रेम से अपनाऊंगा, जैसे तुम्हारे पूर्व पत्रों को अपनाया था।'

रेखा चुप रही। वह भय से कांप रही थी कि उसकी उप- स्थिति में बाबा आ गये तो एक नई विपत्ति खड़ी हो जायेगी। एक कड़ी दृष्टि रेखा पर डालते हुए वह चला गया। उस दृष्टि में प्रेम और घृणा दोनों का सम्मिश्रण था। परन्तु अबकी बार रेखा स्थिर रही। उसका निश्चय पहले से कहीं दृढ़ दिखाई दे रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे आने वाली विपत्ति का सामना वह कायरता से नहीं साहस से करेगी।

धीरे-धीरे पांव उठाती वह अपने कमरे में पहुंची। उसने देखा, नीला एक कुत्ते के पिल्ले से खेल रही है। उठाकर उसे बिस्तर पर रखने ही वाली थी कि रेखा ने लपककर उस पिल्ले को नीचे उतार दिया और बोली,’इसे बाहर फेंक आ, नहीं तो बाबा आते ही लाल-पीले हो बरस पडेंगे.... न जाने कहां से गंदगी उठा लाई है।'

नीला मुंह बनाती हुई पिल्ले को लेकर बाहर चली गई। रेखा ने क्रोधाभिभूत मुखाकृति को सामने दीवार पर लटकते दर्पण में देखा तो उसने झट अपना मुंह फेर लिया। जिस मुखड़े को देख वह फूली नहीं समाती थी, आज उसको को देख घृणा से भर उठी। न जाने क्यों उसके कानों में उस दिन सिपाही के मुंह से सुने वह शब्द गूंजने लगे, क्या तुम नहीं जानती, यह गलियों में फिरने वाले आवारा कुत्ते, घरों में जाकर गन्दगी फैलाते हैं... इसीलिए तो इन्हें रात को कमेटी वाले इस खाई में लाकर गोली का निशाना बना देते हैं.. वह शब्द याद हो उसका मुख मलीन पड़ गया। उसके नथुने फूल गए। वह मोहन जो कल तक उसके स्वप्न का राजा बना हुया था, अब उसे गली- कूचों में घूमने वाले आवारा कुत्ते के अतिरिक्त और कुछ नहीं लग रहा था। जो शरीफ और इज्जतदार घरानों का सुख और चैन लूटने को चिन्ता में घूम रहा हो, क्या समाज के इस भयानक पशु का इन कमेटी वालों के पास कोई उपाय नहीं।

भयाक्रान्त आंखें घूमती हुई रोशनदान की उन सलाखों से जा टकराईं, जिसके साथ जाती हुई पटरी पर हजारों पग बढ़ते जा रहे थे।

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