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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

माली वहां न था, उसने दो-एक बार घूमकर देखा तो फिर एक ही धक्के में दरवाजा खोल दिया।

कपड़ों और दूसरी वस्तुओं को बिखरा हुआ देखकर उसे सन्देह हुआ। उसने चतुर्दिक अन्वेषक दृष्टि दौड़ाई। एकाएक उसका माथा ठनका। रेखा की लिखी सब चिट्ठियां और फोटो गायब था।

खिड़की खोलकर उसने नीचे झांका। दूर किले की दीवार के साथ-साथ वह भागा जा रहा था। उससे पहले कि बह कुछ सोच पाता, माली ने एक टैक्सी रोकी और उसमें बैठकर हवा हो गया।

मोहन चोर-चोर पुकार कर होटल वालों को इकट्ठा न कर पाया, क्योंकि स्वयं उसका मन चोर था और वह पुलिस की निगाह में था।

कपड़े बदलकर वह सीधे रेखा के मकान की ओर चल पड़ा। आज वह क्रोध से क्षुब्ध हो रहा था। उसने कभी यह विचार भी न किया था कि रेखा इतना बड़ा धोखा दे सकती है।

जैसे ही मोहन ने राणा साहब के घर के बाहर वाला दरवाजा खटखटाया उसका सामना शम्भू से हो गया। पूछने पर पता चला कि रेखा घर पर ही है। शम्भू उसे कोई मिलने वाला समझकर सीधा वैठक खाने में ले गया।

उसे वहां बिठाकर शम्भू रेखा को सूचना देने चला गया। मोहन ध्यान से बैठक का निरीक्षण करने लगा। घर के शान्त बातावरण से उसने अंदाजा लगाया कि राणा साहब अनुपस्थित, हैं।

इतने में साथ वाले कमरे से रेखा ने उस कमरे में प्रवेश किया। उसे देखते ही वह समझ गई- 'मोहन... तुम...'

'हां मैं, बस स्टाप पर तुम्हें न पाकर सीघा यहां चला आया।'

'तुम्हें यहां आने का साहस कैसे हुआ?'

‘विवश था.. तुम्हारे मस्तिष्क की मैं प्रशंसा करता हूं।’

किस सफाई से उल्लू सीधा किया है.. पत्र उड़ सकते हैं परन्तु मैं अभी नहीं उड़ा हूं।'

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