ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
'परन्तु बाबा...!' स्वर से करुणा का सागर लहरा उठा।
‘कहो-कहो..... रुक क्यों गईं?’
'मेरी इज्जत उस आवारा के हाथ में है।'
'नहीं-नहीं बाबा, ऐसी कोई बात नहीं, बात यह है कि मेरी लिखी हुई चिट्ठियां उसके अधिकार में हैं।'
'ओह.... तुम घबराओ नहीं.. सब ठीक हो जाएगा...’' माली ने दृढ़ता से उसकी ओर देखा। रेखा का मनसंताप बहुत कुछ हलका हो गया।
होटल के कमरे में बैठा मोहन कोई फिल्मी मैगजीन देख रहा था कि दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी। उसने उठकर दरवाजा लोल दिया। सामने माली खड़ा था। दोनों एक-दूसरे को ध्यानपूर्वक देखने लगे।
‘कौन!' मोहन ने घबराकर पूछा। वह तबस्सुम के पिता को नहीं पहचान सका था।
'मोहन आप ही का नाम है?'
'हां मेरा ही नाम है, क्या चाहते हो?'
'मुझे रेखा ने भेजा है, मैं उनका नौकर हूं।’
'ओह.. भीतर आ जाओ....'
'धन्यवाद। यहीं ठीक हूं!' वह नीचे बस-स्टाप पर खड़ी हैं, आपको बुलाया है।'
'मोहन ताली ढूंढने लगा कि जाने से पूर्व कमरा वन्द कर दे।’
माली ने उसकी घबराहट को और भड़काया- 'शीघ्र ही मिलने को कहा है... आप जाइये मैं यहीं ठहरता हूं।’
मोहन जब नीचे बस स्टाप पर आया तो वहां कोई न था। उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई पर रेखा कहीं नहीं दिखाई दी। उसने सोचा शायद इधर-उधर कहीं परेशान करने के लिए छिप गई होगी। वहीं खड़ा हो प्रतीक्षा करने लगा, परन्तु निराशा ही हाथ लगी।
थोड़े समय की प्रतीक्षा के पश्चात् वह पलटा और तेज पांव उठाता होटल की ओर बढ़ा। तेजी से सीढ़ियां चढ़ता हुआ जैसे ही वह अपने कमरे के पास पहुंचा तो उसे बन्द पाया।
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