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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

'नहीं तो... ऐसी कोई बात नहीं, यह धमाका सुनकर डर गई थी।’

'ओह... वह तो बन्दूक की गोली की आवाज थी।' एक सिपाही बोला।

'किस पर गोली चलाई गई थी?' साहस कर उसने पूछा।

‘कुत्ते पर।'.

'वह क्यों?'

'दिन भर म्यूनिसिपल कमेटी वाले गलियों में आवारा फिरने वाले कुत्तों को पकड़ते हैं और रात को इस खाई में लाकर उन्हें गोली से उड़ा देते हैं।'

'परन्तु उन बेचारों ने इनका क्या बिगाड़ा है?'

'यह आवारा कुत्ते दूसरे के घरों में जाकर गन्दगी फैलाते हैं- बावले कुत्ते काट खाएं तो उन्हें भगवान बचाए.... बीमारी फैलाने का भय रहता है... इसीलिए तो इनका सफाया किया जाता है।'

रेखा ने सन्तोष की सांस ली और वह घर की ओर वढ़ने लगी। इतनी रात गए अकेले देखकर एक सिपाही ने उसे घर पहुंचा देने तक को कहा, परन्तु उसने यह कहकर कि उसका घर समीप ही है, उसे धन्यवाद दे आगे बढ़ गई। गोली चलने का धमाका और सिपाही के शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे। जब वह घर के सामने पहुंची तो वाहर का दरवाजा खुला देखकर उसकी रगों में दौड़ता हुआ लहू सर्द हो गया। घबराहट में वह रुक गई और दीवार की ओट लेकर इधर-उधर देखने लगी। उसने अनुभव किया, एक छाया धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ी आ रही है।

'डरो नही. मैंने ही खोल रखा है... ताकि तुम्हें पुन: दीवार फांदने की आवश्यकता न पड़े।'

यह माली की आवाज थी। रेखा उसे देखकर आग बबूला हो गई।'

क्रोध में दो-एक थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिए-’कमीने, दुष्ट, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है जो मेरा पीछा कर रहा है, मुझे जलील करने पर तुला हुआ है।'

रेखा बिना माली के उत्तर की प्रतीक्षा किए भीतर चली गई। वहां सर्वत्र सन्नाटा था। सब सो रहे थे। उसने चुपके से अपने कमरे में प्रवेश किया और पलंग पर गिरते ही स्वयं को कोसने लगी। आज उसे अपने से अतीव घृणा हो रही थी।

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