ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
रेखा शिकारी द्वारा घायल हिरणी की तरह छटपटा उठी, जैसे ही जाने को हुई, मोहन अपना स्थान छोड़कर उठ खड़ा हुआ और बोला- 'रेखा....।'
'क्या? ’
'कल मैं तुम्हारे बाबा से मिलने आ रहा हूं।'
'क्यों? ’
'जो बात तुम अपने बाबा से नहीं कह सकीं, कल मैं कहूंगा।’
'ओह..’ वह एक दीर्घ निःश्वास खींचते हुए बोली, ’इसी पर तुले हुए हो, तो कल रात तक प्रतीक्षा करो... कल का पत्र मेरा अन्तिम पत्र होगा... उसके पश्चात् तुम जैसा मन चाहे करना...'
जैसे ही वह दरवाजे के बाहर निकलने को हुई कि फिर मुड़कर बोली,’मोहन कल का मेरा पत्र जो भी सन्देश लाए, मैं आशा करती हूं कि तुम उसे उसी प्रकार प्यार से संजोकर रखोगे जिस प्रकार मेरे पहले पत्रों को अब तक रखा है।’
'ऐसा ही होगा।'
रेखा चली गई और मोहन बहुत समय तक वहीं खडा उसे देखता रहा। उसके मन में उसके प्रति सहानुभूति तो हुई पर नाममात्र को। उसने कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं।
संकोच और लज्जा की चादर ओढ़े इस अन्धेरी रात में रेखा अपने घर की ओर बढ़ी जा रही थी। उसे आज अपनी मूर्खता पर क्रोध आ रहा था। उसने मन-ही-मन सोचा, उसके डस तरह घर से चले जाने का यदि किसी को भास हो गया तो कहीं की न रहेगी।
तो मोहन को मेरे से प्रेम नहीं, धन से प्रेम था. यह विचार आते ही वह कांपकर रुक जाती और घूमकर पीछे देखने लगती... जन-शून्य पथ देख, आश्वस्त हो जाती।
एक गहरी खाई का पुल पार करते एकाएक वह जोर से चिल्ला उठी। उसके कानों ने एक जोर का धमाका सुना। वह अभी संभल भी न पाई थी कि दो पुलिसमैन भागते हुए उसके पास आकर रुक गए।
'डरो नहीं... क्या बात है? किसी ने कहीं...।’
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