ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
‘सच्चे प्रेम के मार्ग में यह कभी विघ्न-स्वरूप नहीं आया।’
'यह सब कहने की बातें हैं... वास्तविकता को समझने का प्रयत्न करो रेखा...’
'खेद तो यही है कि यह सब बहुत देर में समझी।'
‘तुम समझती हो.. मैं तुम्हें धोखा दे रहा हूं। मुझे गलत न समझो।'
'मोहन तुम जो कहते हो वह असम्भव है।'
यह कहते हुए मोहन का दिया हार उसने गले से उतारकर उसके सामने फेंक दिया और अपनी चादर उठाकर ओढ़ ली। मोहन हैरान था कि उसे कैसे रोके। सहसा उसे कुछ याद आया, दरवाजे के समीप रुककर वह बोली- ’मेरे पत्र मुझे लौटा दो।'
'क्या तुम समझती हो मैं इन्सान नहीं... मुझमें हृदय नहीं।'
'मैंने तुमसे कोई गिला नहीं किया.. अब मेरे पास रखा ही क्या है... उन्हें लौटा दो, तुम्हारे किस काम के।'
'मुझे तुम्हारी चाल का ज्ञान था, साफ-साफ क्यों नहीं कहतीं कि मुझे मार्ग से हटाकर रमेश की हो जाता चाहती हो।'
'मुझे अब क्या करना है, यह मेरा निजी प्रश्न है.. मुझे अधिक परेशान न करो... मेरा इतना अनुरोध है...'
'परन्तु तुम मुझे जलाकर स्वयं सुखी नहीं रह सकतीं... याद रखो कि वे पत्र तुम्हारा जीवन नष्ट कर सकते हैं।'
'कसर ही क्या रह गई है जिसे अब पूरा करोगे?'
'यह पत्र तुम्हारे बाबा और रमेश के सम्मुख रखूंगा। स्वयं ही प्रकट हो जाएगा कि तुम किसकी हो सकती हो?'
'मोहन ऐसा अत्याचार न करना।'
'जब तुम ही अविश्वास पर उतर आईं तो चारा ही क्या है?'
'विश्वासघाती कौन है, इसका निर्णय अभी हो जाता है। तो मैं तुम्हारे सामने खड़ी हूं, मुझे संभालो या इन्हीं हांथो से मेरा गला घोंट दो।'
'और मैं स्वयं फांसी पर लटक जाऊं? क्यों?'
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