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राख और अंगारे

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9598
आईएसबीएन :9781613013021

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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।

दूसरे दिन प्रातःकाल जब रेखा रसोईघर में खड़ी कोई काम कर रही थी तो माली बरामदे में खड़ा राणा साहब की प्रतीक्षा कर रहा था। जैसे ही वह बाहर आए, माली ने झुक कर सलाम किया। रेखा कांप गई कि कहीं वह रात की बात न उगल दे। वह अपना काम छोड़कर खिड़की के पास आ गई और सांस रोककर उसने उधर कान लगा दिए - यह जानकर उसे सन्तोष हुआ कि उसने रात वाली बात नहीं उगली है। बाबा और मां कहां जा रहे हैं? उन्होंने उसे घर का ख्याल रखने का आदेश दिया है। बाबा को एक माली पर ही पूरा विश्वास था।

जब बाबा और मां चल गए तो रेखा ने पानी का एक गिलास उठाया और तेज-तेज पांव उठाती अपने कमरे की ओर जाने लगी। उसने जाते हुए कनखियों से माली की ओर देखा। वह भी उसे देख रहा था।

दोनों की दृष्टि आपस में टकराई और रेखा कांपकर रुक गई।

'शम्भू !' उसने नौकर को पुकारा जो माली के साथ खड़ा बातों में लगा हुआ था- ’जरा धोवी को बुला लाना तो!’

रेखा शम्भू को आदेश दे अपने कमरे में चली आयी। पानी का गिलास मेज पर रखा। कांपते हाथों से आलमारी में से चूहे मारने वाली दवा की डिबिया खोलकर देखा। यह एक गुलावी रंग का पाउडर था।

ज्योंही उसने वह विषैला पाउडर पानी के गिलास में उंड़ेलना चाहा, किसी ने बढ़कर पीछे से उसकी बांह थाम ली।

वह सिर से पैर तक कांप उठी। आगन्तुक माली था। वह क्रोध में बोला, ’यह क्या?’

रेखा ने दांत पीसते हुए अपनी बांह एक झटके से अलग कर ली और तीव्र स्वर में बोली, ’तो क्या आराम से मुझे मरने भी नहीं दोगे!’

'नहीं।’ वह भारी स्वर में चिल्लाया।

'जान पड़ता है बाबा ने तुम्हारा वेतन पहले से बढ़ा रखा है।'

‘यही समझ लो, परन्तु मैं तुम्हें यह पाप कभी न करने दूंगा।'

'तो क्या कोई पुण्य का मार्ग ढूंढकर आए हो’'

'बेटी मुझे समझने का प्रयत्न करो... मैं तुम्हारा शत्रु नहीं... तुम्हें सही रास्ता दिखलाना ही मेरा उद्देश्य है।'

'शायद अवसर की खोज में हो कि रात वाले थप्पड़ का बदला ले सको।'

'थप्पड़.. यदि चाहो तो एक और लगा सकती हो.. कोई अभागी बेटी, बाप को...'

'रहने भी दो.... यदि तुम्हारे सीने में बाप का हृदय होता तो तुम कभी मेरा बुरा न चाहते...'

'ऐसा न कहो रेखा.. ऐसा न कहो!' और वह अपना सिर दोनों हाथों से थामकर बैठ गया। रेखा ने यूं अनुभव किया जैसे उसने यह कहकर उसके मन को कुरेद दिया है। माली की वर्षों से सुप्त अन्तर पीड़ा एकाएक भड़क उठी।

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