ई-पुस्तकें >> राख और अंगारे राख और अंगारेगुलशन नन्दा
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मेरी भी एक बेटी थी। उसे जवानी में एक व्यक्ति से प्रेम हो गया।
पर पगली... यह बीसवीं शताब्दी है... समय और शिक्षा ने हर व्यक्ति को उजाले में ला खड़ा कर दिया है, जिससे वह अपना बुरा-भला स्वयं समझ ले। क्या मोहन का प्रेम भी उतना ही पवित्र और सत्य है, जितना उन प्रेम-पतंगों का था'!'
उधर मोहन भी अपने होटल के कमरे में बैठा रेखा के विषय में ही सोच रहा था। वह रेखा की तस्वीर को उठाकर देखने लगा जो उसने उसे दे रखी थी। रेखा के यह शब्द उसे स्मरण हो आए, जब अकेले में उदास हो जाओ तो मेरी तस्वीरें से बातें कर लिया करना।
'शुभ विचार है' उसने तस्वीर उठाते हुए स्वयं ही कहा, ‘इससे तो मैं कह नहीं कह सकूंगा जो तुम्हारे समक्ष कहने में हिचकता हूं।' कुछ मुस्कराकर उसने तस्वीर को और समीप कर लिया और मन ही मन बोला- 'हां रेखा, सच ही तुम बहुत भोली हो... मेरा जीवन तो तुम जैसी खूबसूरत जवानी से खेलते बीता है. स्त्री की भूख मुझमें नहीं... सच पूछो तो इस जीवन से अब उकता चुका हूं. .मुझे तो वस तुम्हारे बाबा के धन से प्यार... घरजमाई वन बैठा तो सदा की पेंशन बंध जाएगी... परन्तु यह न समझना कि मुझे तुमसे झूठा प्यार है... मैं तो अब भी तुम्हारा हृदय से प्रेमी हूं... ब्याह ही करना हो तो मैं तुम्हें कहीं भी ले जाकर यह काम कर सकता हूं... परन्तु मुझे केवल मन ही नहीं, धन भी चाहिए... मैं जीवन से भी प्रेम करता हूं...।'
वह इतना ही कह पाया था कि किसी ने किवाड़ों पर थपकी दी। मोहन झट से संभल गया और उसने तस्वीर को तकिये के नीचे छिपा दिया। किवाड़ खुलते ही वह भौंचक रह गया।
'रेखा... तुम...।’
'हां मोहन... तुम्हारी रेखा’ उसने ओढ़ी हुई गर्म चादर एक ओर रखते हुए उत्तर दिया।
'परन्तु तुम... इतनी रात गए...।'
'तुम्हें चोरों की भांति छिपकर आना अच्छा नहीं लगता था न। सोचा, आज मैं ही चोर बन जाऊं...।'
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