भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
वसुन्धरा
मुझे
तुमसे कोई शिकायत नहीं है
'वसुन्धरा'
कि तुम
आकाश नहीं हो पाईं
अब तक
क्योंकि-
मैं भी तो
नहीं बदल सका
अपना स्वरूप।
मैं, अक्सर महसूसता हूँ
अपने
आकाश होने का दर्द
और-
मर्यादित सीमाएँ
फिर भी-
मन के कोने से
अक्सर फड़फड़ाकर उठती है
इक हूक सी
कि आखिर क्यों
नहीं बदल जाता
धरती और आकाश होने का अर्थ!
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