भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
तुम्हारा सामीप्य
आज फिर
नाइट लैम्प की रोशनी में
देर तक
अँगुलियाँ-
कोरे कागज पे
कलम से
खींचती रही शब्द रेखाएं
और
टेबिल के नीचे
इकट्ठा होते रहे
कागज के गुत्थड़।
इनमें से एक पे भी
नहीं उभर पाया
तुम्हारा नाम !
मेरे अपने-
तुम्हारे हर सामीप्य ने
हमेशा
इतना अपनापन दिया है
मुझे
कि तुम्हें
नाम देने को
कभी मचले ही नहीं
होंठ।
और
तुम्हें-
शायद इंतज़ार रहा कि
मैं ही
पूरी करूँ रस्म
तुम्हें 'नाम' देने की!
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