भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
|
7 पाठकों को प्रिय 185 पाठक हैं |
संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
लहरें पुकारती हैं !
समुन्दर किनारे खड़ा
मैं,
कुछ पल खोया रहा
लहरों की
अठखेलियों में
फिर,
उन्हें करीब से देखने
और
उन जैसा होने की चाह साधे
लहरों के साथ-साथ चलता
अब,
मैं
दूर-समुन्दर
आ पहुँचा हूँ
लेकिन
लहरें-
दूर और दूर
चंचलता से ठिठोली करतीं
दौड़ी जा रही हैं।
अब,
जहाँ मैं आ खड़ा हूँ-
दूर तक साम्राज्य है
अथाह जल का।
सागर की गर्त में डूबने से बचने,
लहरों से बतियाने
और
वापस लौटने की
कश्मकश में फँसा मैं
ख़ामोश खड़ा हूँ।
और
लहरें
अब भी क्रीड़ारत हैं
अविराम,
कभी नागिन सी बल खाती,
फेना उगलती,
कभी
मोतियों के सैलाब सा भ्रम देती हुईं।
और
समुन्दर,
खामोशी से ओढ़े हैं
मर्यादा की चादर !
|