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पीढ़ी का दर्द
पीढ़ी का दर्द
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
|
पुस्तक क्रमांक : 9597
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आईएसबीएन :9781613015865 |
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7 पाठकों को प्रिय
185 पाठक हैं
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
शहर
अपना शहर
बहुत बदल गया है अब।
परदेस से लौटा-
वह,
सोचता है-
सुनसान मुहल्ला
अब भीड़ से घिर गया है,
बुधवा की चाय की दुकान को
ऊँची इमारत खा गई,
गंदे बच्चों के ऊधम वाली जगह
और
जानवरों के बाड़े पर-
‘ऊँचे लोगों’ की बस्ती पसरी है।
मोटा साहूकार
अब, दूना मोटा हो गया है।
हाँ, बगल का मंगतू
और पतला
मगर, शीशम सा मजबूत हो गया है,
गंदे झोपड़ों वाले मैदान पे-
अब झंडे ही झंडे हैं;
पड़ोस का घर
ऊँची दीवारों में कैद है।
बाहर कैक्टस भी है
जबकि-
पहले झाड़ियों से
न जाने क्यों चिढ़ता था वो।
घर आते में-
कई बार रास्ता भटक गया,
दरवाजे पे बना
निशान भी तो मिट गया है,
सोचता है वह!
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पुस्तक का नाम
पीढ़ी का दर्द
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