भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
शहर
अपना शहर
बहुत बदल गया है अब।
परदेस से लौटा-
वह,
सोचता है-
सुनसान मुहल्ला
अब भीड़ से घिर गया है,
बुधवा की चाय की दुकान को
ऊँची इमारत खा गई,
गंदे बच्चों के ऊधम वाली जगह
और
जानवरों के बाड़े पर-
‘ऊँचे लोगों’ की बस्ती पसरी है।
मोटा साहूकार
अब, दूना मोटा हो गया है।
हाँ, बगल का मंगतू
और पतला
मगर, शीशम सा मजबूत हो गया है,
गंदे झोपड़ों वाले मैदान पे-
अब झंडे ही झंडे हैं;
पड़ोस का घर
ऊँची दीवारों में कैद है।
बाहर कैक्टस भी है
जबकि-
पहले झाड़ियों से
न जाने क्यों चिढ़ता था वो।
घर आते में-
कई बार रास्ता भटक गया,
दरवाजे पे बना
निशान भी तो मिट गया है,
सोचता है वह!
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