भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
अस्पताल
अस्पताल
जो आदमी नहीं होता
मगर, जीता है आदमी सा।
खामोशी से देखता है
टकटकी लगाए
बरामदे में पड़े
तवे से काले-
चपटे पेट वाले आदमी को,
जो भूख पटाने का जुगाड़
न होते हुए भी
सोचता है-
टूटी टाँग के इलाज की बात,
किसी बेवा की-
आकाश भेदती चीख,
मैले से-
मासूम बच्चे के
सामने से जाती
बाप की लाश,
साफ सुथरे कमरे की खिड़की से
आवारा जानवरों को-
फेंकी जाती मक्खन लगी ब्रेड,
देर रात-
दर्द से बिलबिलाते
मरियल आदमी का
हाल बताने के लिए
डाक्टर का दरवाजा खटखटाने पर
डाँट खाते तीमारदार,
शुभचिन्तकों का जमघट देख
कुप्पा होता-
बीमार सेठ
और
सडांध के बीच
इमरजेन्सी के
खून से सने 'बेड' पर,
इलाज से पहले
कागजी खानापूरी के बीच
दम तोड़ते
अनाम लखपती युवक को,
फिर-
उसकी लाश
टूटे रिक्शे के हवाले करते
'भगवानों' को।
सब कुछ देखता
सुनता है
और
देर रात सोता नहीं
सुबकता है
अस्पताल-
जो आदमी नहीं होता!
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