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भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
अनाम होता बच्चा
अनब्याहे मातृत्व का हक
खुद से अलग कर
समाज की देहरी पे
फेंकते हुए
दर्द से सिहर उठती है
वह, जो कुंवारी माँ है।
ख़ामोशी से घूरती है
अपने
कमज़ोर हाथों को
जिन्हें
बहुत अपनेपन से थामकर
समझाया था किसी ने
उसके अस्तित्व का अर्थ।
कुंवारी माँ-
पी जाती है अविरल बहता
आँखों का नमकीन पानी,
घोंट देती है गला
कोरी छाती के हक का,
सार्थक करने को
परिभाषाएं-
माँ,
देहरी,
समाज की।
हालांकि-
बहुत सालता है उसे
गंदगी के बिछौने में पड़े
अपने ही हिस्से को
बेनाम होते देखना।
चुपचाप, उल्टे पांव
बेरूखी से
मुँह मोड़कर
घर लौटती 'मां' को
नहीं रोक पाता
गोद के अर्थ से अनजान
किलकारियाँ भरता
क्रीड़ारत
अनाम होता बच्चा!
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