भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
चाहत
मैं,
नहीं चाहता कि
सूरज मेरी मुट्ठी में रहे
और
न यह संभव है कि
धरती-
मेरे कहने पर ही
अपनी धुरी पे घूमे।
मैं,
कब कहता हूं कि
बच्चे
मुझे देखते ही खिल उठें
हाँ,
उनकी पनीली आँखें
मुझे कतई नहीं भातीं,
भाता है-
बह सब कुछ
जो रचा है उस अदृश्य ने
सुन्दर,
नहीं भाता-
सूरज का निस्तेज रहना,
किसान के खाली हाथ,
आसमान का तटस्थ रहना,
और
चांद का
खाली पेट जागना।
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