भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
कठपुतलियां
हाँ, हम सब
सिर्फ कठपुतलियाँ हैं,
हाड़-मांस कीं
चलती-फिरती
बोलती हुई
जिनकी डोर है
तहज़ीबदार
समाज के हाथों में।
यूँ ज़िन्दा रहना
और
सुनहरे सपने देखना
ज़िन्दगी के कदमों की
आहट देते हैं
लेकिन,
ज़िन्दा आँखों के सामने
सपनों का
छटपटाकर दम तोड़ देना
और
होठों का ख़ामोश रहना,
यह सब
हाड़-माँस के पुतले की
प्राणवायु नहीं हो सकते कभी।
वैसे भी-
बेजान चीजों
और
संवेदनाओं में
कोई साम्य नहीं बैठता।
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