भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
मजदूर सा सूरज
मैंने देखा है
उस गंदी सी बस्ती में-
उगता' सूरज,
ताजी लालिमा,
खिली धूप
और
नीला, खुला आसमान
और
देखे हैं
उसमें, पंख पसारे
इठलाकर
ऊंची-नीची उड़ानें भरते
चंद परिन्दे।
कुछ भोजन की तलाश में,
कुछ जी भरकर
जिन्दा रहने की कश्मकश में फंसे
और
कुछ को देखा है
'कुछ' तलाशते हुए।
फिर, देखी है
ढलती शाम
औ-
गुड़िया सी सजी
ठुमकती आती रात को।
और फिर-
किसी मजदूर से आते
थके-मांदे सूरज को-
धूल भरे चंद कपडों में
एक बार फिर-
कच्चे टिक्कड़
सोंधी चटनी से
चपटे पेट को-
सब्र का निवाला देते हुए।
फिर
सो जाता है
सूरज
रोज की तरह
अगले दिन की दुनियाँ के
टूटे सपने बुनने को...!
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