भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
कालचक्र
तुम्हें,
कौन सा दिन बताऊं
अपनी पैदाइश
और
इस ज़मीं से जुदा होने का।
अज्ञात ठिकाने की तरफ
खिसकते कदम
बस, यूं हीं चलते रहे
कितने 'तुम' मिले
कितने 'हम' रुखसत हुए?
बीते लम्हों जैसा
जहन में खोता गया
सब।
जाने कब
मैं,
व्यस्त शहर की
सांप सी काली सड़क पे घूमते
आवारा जीवों सा-
कुचला गया,
मेरी घुटी सी चीख़
शोर में दफ़न हो गयी,
मेरी अनाम मौत की
गवाही के लिए
कोई
'आदमी' न मिला
और
मैं
हर बार
मरता रहा
कितनी बार (?)
याद नहीं।
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