भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
मेरा इरादा नहीं है
हाँ,
निश्चित ही
तुम्हारे
विशालकाय अस्तित्व के समक्ष
तुम्हारी
मदांध दृष्टि में
मैं, होऊँ अस्तित्व-विहीन,
लेकिन
शायद,
तुम्हारी स्मृति में
कभी रहा हो
वह अतीत
जब मैंने
कभी
लव-कुश,
कभी अभिमन्यु
और
कभी ध्रुव बनकर
तुम्हारे
दर्प को कई बार किया है
चूर-चूर।
वैसे तो
नदी भी
तुम्हारे
समुन्दर होते हुए
जा मिलती है तुम्हीं में
लेकिन
जब-जब भी मर्यादा की
याद दिलाई है
किसी ने उसे,
मुझे याद है
कईयों बार
दाँतों तले अँगुली जा दबी है
तुम्हारी,
उसका
रौद्र स्वरूप देखकर।
वैसे,
तुम्हें-
अपने अस्तित्व और
कूबत का एहसास कराने का
मेरा कतई इरादा नहीं रहा है।
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