भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
|
7 पाठकों को प्रिय 185 पाठक हैं |
संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
ओ आदमी !
तुम,
बहुत टीसते हो मुझे
ओ चीथड़ों से ढके
गंदे से आदमी !
मैं
जब भी महसूसता हूँ
तुम्हें,
एहसास होता है कि
भीड़ में खोए शहर में-
आधुनिक सभ्यता के बीच
दम तोड़ती मर्यादाओं में
बाकी हैं कुछ सांसें।
खत्म नहीं हुई अब भी
याद रखने की परम्परा-
अस्तित्व के लिए जूझता
पूर्वजों का सत्य,
आँखों के पनीलेपन
और
खुद के ज़िन्दा होने के मायने।
|