भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
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संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
सूरज का दर्द
आजकल
कुछ अनमना सा है
सूरज,
रोज उठता है
अँधेरे मुँह
यंत्रचालित सा-
नापने
रोशनी से अँधेरे तक का फासला।
दिन भर
चपटा पेट लिए
लड़ता है ज़िन्दगी के लिए,
झाँकता है
एड़ियों के बल उचककर
उजाले के बीच
अँधेरे में कैद
घरौंदों में,
सुनता है
झरोखों से छनकर आती
फुसफुसाती आवाज़े,
देखता है
रोशनी के खिलाफ
साज़िश करते लोग।
देर शाम घर लौटते
कंधों पर लाता है
अनकहा दर्द
रातभर करवट बदलता
सोता नहीं
सुबकता है सूरज
रोज व्यर्थ जाती
अंधेरा मिटाने की
खुद की कोशिश पर।
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