भाषा एवं साहित्य >> पीढ़ी का दर्द पीढ़ी का दर्दसुबोध श्रीवास्तव
|
7 पाठकों को प्रिय 185 पाठक हैं |
संग्रह की रचनाओं भीतर तक इतनी गहराई से स्पर्श करती हैं और पाठक बरबस ही आगे पढ़ता चला जाता है।
धर्म
नंगी सड़क पे
पगलाई भीड़ के आगे
मैं ही था
और
सामने, वह अकेला।
मैंने,
उसका धर्म पूछा
वह ख़ामोश रहा
सिर्फ
बोलीं, उसकी आँखें।
मैं
फिर हैवान बन गया
मेरे हाथ का
बेधर्म चाकू,
उसके पेट में धँस गया।
वह
फिर भी चुप था
बस,
उसके जिस्म से
बह रहा था
निर्विवाद, शाश्वत लाल रंग।
0 0 0
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book