ई-पुस्तकें >> पवहारी बाबा पवहारी बाबास्वामी विवेकानन्द
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यह कोई भी नहीं जानता था कि वे इतने लम्बे समय तक वहाँ क्या खाकर रहते हैं; इसीलिए लोग उन्हें 'पव-आहारी' (पवहारी) अर्थात् वायु-भक्षण करनेवाले बाबा कहने लगे।
परन्तु घर लौटने पर जिन्होंने उनका स्वागत किया, वे थे केवल उनके बाल्य जीवन के मित्रगण। उनमें से अधिकांश संकीर्ण विचारों तथा नित्य संघर्ष के संसार में हमेशा के लिए प्रविष्ट हो चुके थे। परन्तु फिर भी उन लोगों को अपनी पाठशाला के इस पुराने मित्र तथा खिलाड़ी के, जिसको समझने के वे आदी थे, चरित्र एवं आचरण में एक परिवर्तन - एक रहस्यमय परिवर्तन - दिखाई दिया, जो उनके लिए विस्मयजनक था। लेकिन अपने मित्र के सदृश बनने की इच्छा अथवा उसके समान सत्य की खोज करने की आकांक्षा उनमें जागृत न हो सकी। यह एक ऐसे व्यक्ति का रहस्य था, जो इस कष्टमय तथा भोगलोलुप संसार से पार जा चुका था, और बस इतनी ही भावना उनके लिए पर्याप्त थी। सहज ही उनके प्रति श्रद्धासम्पन्न हो, उन लोगों ने फिर और अधिक जिज्ञासा प्रकट नहीं की।
इसी समय इस सन्त की विशिष्टताएँ अधिकाधिक विकसित और प्रकट होने लगीं। काशी के निकट रहनेवाले अपने संन्यासी गुरु के सदृश उन्होंने भी जमीन में एक गुफा खुदवा ली और उसमें प्रवेश करके वे वहाँ अनेक घण्टे बिताने लगे। इसके पश्चात् अपने आहार के सम्बन्ध में भी वे कठोर नियम का पालन करने लगे। दिन भर वे अपने छोटेसे आश्रम में काम करते रहते। वे अपने प्रेमास्पद श्रीरामचन्द्रजी की पूजा करते; फिर उत्तम प्रकार के व्यञ्जन तैयार करते। (कहते हैं कि इस पाकविद्या में वे असाधारण रूप से निपुण थे।) इन व्यञ्जनों का भगवान् को भोग लगाकर वे फिर उन्हें अपने मित्रों तथा दरिद्रनारायणों में प्रसाद रूप में बाँट देते और रात होने तक उनकी सेवा में लगे रहते। जब सब सो जाते, तब वे चुपके से गंगाजी में कूदकर तैरते हुए दूसरे किनारे पर चले जाते और वहाँ सारी रात साधन-भजन में बिताकर प्रातःकाल के पूर्व ही वापस लौट आते और अपने मित्रों को जगाकर फिर अपने उसी नित्यकर्म में लग जाते, जिसे हम भारत में 'दूसरों की सेवा या पूजा' कहते हैं।
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