ई-पुस्तकें >> पौराणिक कथाएँ पौराणिक कथाएँस्वामी रामसुखदास
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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।
आँख खोलने वाली गाथा
राजा नहुष की छः संतानों में से महाराज ययाति दूसरी संतान थे। इनके बड़े भाई का नाम यति था। वे बचपनसे निवृत्तिमार्गमें अग्रसर होकर 'ब्रह्म'-स्वरूप हो गये, अतः कोसलदेशका शासन ययातिके हाथोंमें आया। ये बहुत शूर-वीर थे। अपने पराक्रम से आगे चलकर ये सम्राट् हो गये थे। ये युद्ध में देवताओं, दानवों और मनुष्यों के लिये दुर्धर्ष थे। ये परमात्मा के भक्त पुण्यात्मा और धर्मनिष्ठ थे। ये अपने पास क्रोध को फटकने नहीं देते थे। सभी प्राणियों पर इनकी अनुकम्पा बरसती रहती थी। इन्होंने अगणित यज्ञ-याग किये थे।
महर्षि शुक्राचार्य की कन्या देवयानी इनकी पत्नी थी। दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा अपनी दासियों के साथ देवयानी की दासी बनकर साथ आयी थी। आगे चलकर राजा ययाति ने चुपके से शर्मिष्ठाको भी अपनी पत्नी बना लिया था। देवयानी को इस रहस्य का तब पता चला, जब इसने शर्मिष्ठा के तीनों लड़कों को देखा। इससे कुद्ध होकर देवयानी अपने पिता महर्षि शुक्राचार्य के पास चली गयी। पीछे-पीछे ययाति भी वहाँ जा पहुँचे। अपनी लाडिली पुत्री को दुखी देखकर शुक्राचार्य को क्रोध हो आया। उन्होंने ययाति को बूढ़ा होने का शाप दे दिया। शाप देते ही महाराज ययाति बूढ़े हो गये। उन्होंने महर्षि की बहुत अनुनय-विनय की। तब शुक्राचार्य ने परिहार बतलाया-'यदि तुम्हारे पुत्रों में से कोई तुम्हारा बुढ़ापा लेकर अपनी जवानी दे दे, तब तुम फिर जवान हो सकते हो।'
महाराज ययाति घर लौट आये। सबसे पहले ये देवयानी के पुत्रों के पास पहुँचे। देवयानी से इनके दो पुत्र थे- यदु और तुर्वसु। महाराज ने उनसे अलग-अलग जवानी की माँग की, परंतु दोनों ने इसे अस्वीकार कर दिया। तब महाराज शर्मिष्ठा के ज्येष्ठ पुत्र अनु के पास गये। अनुने भी महाराज की माँग अस्वीकार कर दी। शर्मिष्ठाके दूसरे पुत्र द्रुह्यु ने भी यह माँग ठुकरा दी। अन्तमें महाराज शर्मिष्ठा के तीसरे पुत्र पुरु के पास गये। पुरु ने अपनी जवानी देकर पिता का बुढ़ापा अपने ऊपर ले लिया। पिता ने प्रसन्न होकर पुत्र को आशीर्वाद दिया-'मेरे साम्राज्यपर तुम्हारा और तुम्हारे वंशजोंका ही आधिपत्य होगा।'
युवावस्था प्राप्तकर महाराज ययाति विषय-भोगमें लिप्त हो गये। काम चार पुरुषार्थोंमें एक है। यह त्याज्य नहीं है, किंतु इसका अतियोग अनुचित है। फलतः महाराज वासनाओं की गहराई में उतरते चले गये।
बहुत दिनोंके बाद उन्हें अपनी भूल का भान हुआ। भगवान् की कृपासे उनकी आँखें खुल गयीं। अब विषय-वासनाएँ विष प्रतीत होने लगीं। उन्होंने संसारको अपनी जो अनुभूति दी है, वह इस प्रकार है-'कामकी तृष्णा उपभोगसे कभी कम नहीं होती, प्रत्युत और बढ़ती ही चली जाती है। अग्निमें जैसे-जैसे घी डाला जाता है, वैसे-वैसे उसकी लपटें बढ़ती जाती हैं, ठीक यही दशा विषय-भोग की है। पृथ्वीमें जितने धन-धान्य, पशु-पक्षी और स्त्रियाँ हैं, वे सब एक पुरुषके लिये भी पर्याप्त नहीं हैं। इसलिये मनुष्यको भोगकी ओर न बढ़कर इन्द्रियोंका नियन्त्रण करना चाहिये। मनको परमात्मामें लगाना चाहिये। विषय-भोग मनको परमात्माकी ओरसे हटा देता है। सच्चा सुख ब्रह्मकी प्राप्तिमें ही सम्भव है। तृष्णा ऐसा भयानक रोग है, जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही चला जाता है। केश, दाँत, नख-ये सब जीर्ण हो जाते हैं, किंतु मरते दमतक तृष्णा जीर्ण नहीं होती। इस तृष्णाके त्यागसे इतना सुख प्राप्त होता है कि इसके एक अंशकी भी बराबरी कामसुख या स्वर्गसुख नहीं कर सकता।'
(लिंगपुराण)
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