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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।


गणेशजी पर शनि की दृष्टि


एक बार कैलास पर्वतपर, महायोगी सूर्यपुत्र शनैश्चर शंकरनन्दन गणेशको देखनेके लिये आये। उनका मुख अत्यन्त नम्र था, आँखें कुछ मुँदी हुई थीं और मन एकमात्र श्रीकृष्णमें लगा हुआ था, अतः वे बाहर-भीतर श्रीकृष्णका स्मरण कर रहे थे। वे तपःफलको खानेवाले, तेजस्वी, धधकती हुई अग्निकी शिखाके समान प्रकाशमान, अत्यन्त सुन्दर, श्यामवर्ण और पीताम्बर धारण किये हुए थे। उन्होंने वहाँ पहले विष्णु, ब्रह्मा, शिव, धर्म, सूर्य, देवगणों और मुनिवरोंको प्रणाम किया। फिर उनकी आज्ञासे वे उस बालकको देखनेके लिये गये। भीतर जाकर शनैश्चरने सिर झुकाकर पार्वतीदेवीको नमस्कार किया। उस समय वे पुत्रको छातीसे चिपटाये रत्नसिंहासनपर विराजमान हो आनन्दपूर्वक मुस्करा रही थीं। पाँच सखियाँ निरन्त उनपर श्वेत चँवर डुलाती जाती थीं। वे सखीद्वारा दिये गये सुवासित ताम्बूलको चबा रही थीं। उनके शरीरपर वह्निशुद्ध स्वर्णिम साड़ी शोभायमान थी। रत्नोंके आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। सहसा सूर्यनन्दन शनैश्चरको सिर झुकाये देखकर पार्वतीजीने उन्हें शीघ्र ही शुभाशीर्वाद दिया और उनका कुशल-मंगल पूछा-'ग्रहेश्वर! इस समय तुम्हारा मुख नीचेकी ओर क्यों झुका हुआ है तथा तुम मुझे अथवा इस बालककी ओर देख क्यों नहीं रहे हो?'

शनैश्चरने कहा-'शंकरवल्लभे! मैं एक परम गोपनीय इतिहास, यद्यपि वह लज्जाजनक तथा माताके समक्ष कहने योग्य नहीं है, तथापि आपसे कहता हूँ, सुनिये। मैं बचपनसे ही श्रीकृष्णका भक्त था। मेरा मन सदा एकमात्र श्रीकृष्णके ध्यानमें ही लगा रहता था। मैं विषयोंसे विरक्त होकर निरन्तर तपस्यामें रत रहता था। पिताजीने चित्ररथकी कन्यासे मेरा विवाह कर दिया। वह सती-साध्वी नारी अत्यन्त तेजस्विनी तथा सतत तपस्यामें रत रहनेवाली थी। एक दिन ऋतुस्नान करके वह मेरे पास आयी। उस समय मैं भगवच्चरणोंका ध्यान कर रहा था। मुझे बाह्यज्ञान बिलकुल नहीं था। अतः मैंने उसकी ओर देखा भी नहीं। पत्नीने अपना ऋतुकाल निष्फल जानकर मुझे शाप दे दिया कि 'तुम अब जिसकी ओर दृष्टि डालोगे, वही नष्ट हो जायगा।' तदनन्तर जब मैं ध्यानसे विरत हुआ, तब मैंने उस सतीको संतुष्ट किया, परंतु अब तो वह शापसे मुक्त करानेमें असमर्थ थी, अतः पश्चात्ताप करने लगी। माता! इसी कारण मैं किसी वस्तुको अपने नेत्रोंसे नहीं देखता और तभीसे मैं जीवहिंसाके भयसे स्वाभाविक ही अपने मुखको नीचे किये रहता हूँ।' शनैश्चरकी बात सुनकर पार्वती हँसने लगीं। इसपर नर्तकियों तथा किंनरियोंका सारा समुदाय भी ठहाका मारकर हँस पड़ा।

शनैश्चरका वचन सुनकर पार्वतीजीने परमेश्वर श्रीहरिका स्मरण किया और इस प्रकार कहा-'सारा जगत् ईश्वरकी इच्छाके वशीभूत ही है।' फिर दैववशीभूता पार्वतीदेवीने कौतूहलवश शनैश्चरसे कहा-'तुम मेरी तथा मेरे बालककी ओर देखो। भला, इस निषेक (कर्मफलभोग) को कौन हटा सकता है?'

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