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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।

इस तरह इन्द्र और वटु में संवाद चल ही रहा था कि वहाँ दो सौ गज लम्बा-चौड़ा चींटोंका एक विशाल समुदाय दीख पड़ा। उन्हें देखते ही वटुको सहसा हँसी आ गयी। इन्द्रने उनकी हँसीका कारण पूछा। वटुने कहा-'हँसता इसलिये हूँ कि यहाँ जो ये चींटे दिखलायी पड़ रहे हैं, वे सब कभी पहले इन्द्र हो चुके हैं, किंतु कर्मानुसार इन्हें अब चींटेकी योनि प्राप्त हुई है। इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं करना चाहिये; क्योंकि कर्मोंकी गति ही ऐसी गहन है। जो आज देवलोकमें है, वह दूसरे क्षण कभी कीट, वृक्ष या अन्य स्थावर योनियोंको प्राप्त हो सकता है।' 

भगवान् ऐसा कह ही रहे थे कि उसी समय कृष्णाजिनधारी, उज्ज्वल तिलक लगाये, चटाई ओढ़े एक ज्ञानवृद्ध तथा वयोवृद्ध महात्मा वहाँ पहुँच गये। इन्द्र ने उनकी यथालब्ध उपचारों से पूजा की। अब वटु ने महात्मा से पूछा-'महात्मन्! आपका नाम क्या है, आप कहां से आ रहे हैं, आपका निवासस्थल कहाँ है और आप कहाँ जा रहे हैं? आपके मस्तकपर यह चटाई क्यों है तथा आपके वक्षःस्थलपर यह लोमचक्र कैसा है?'

आगन्तुक मुनि ने कहा-थोड़ी-सी आयु होने के कारण मैंने कहीं घर नहीं बनाया, न विवाह ही किया और न कोई जीविका ही खोजी। वक्षःस्थल के लोमचक्रों के कारण लोग मुझे लोमश कहा करते हैं और वर्षा तथा गर्मी से रक्षाके लिये मैंने अपने सिर पर यह चटाई रख छोड़ी है। मेरे वक्षःस्थल के लोम मेरी आयु-संख्या के प्रमाण हैं। एक इन्द्र का पतन होने पर मेरा एक रोम गिर पड़ता है। यही मेरे उखड़े हुए कुछ रोमों का रहस्य भी है। ब्रह्मा के द्विपरार्धावसान पर मेरी मृत्यु कही जाती है। असंख्य ब्रह्मा मर गये और मरेंगे। ऐसी दशा में मैं पुत्र, कलह या गृह लेकर ही क्या करूँगा? भगवान् की भक्ति ही सर्वोपरि, सर्वसुखद तथा दुर्लभ है। वह मोक्षसे भी बढ़कर है। ऐश्वर्य तो भक्तिके व्यवधानस्वरूप तथा स्वप्नवत् मिथ्या है। जानकार लोग तो उस भक्तिको छोड़कर सालोक्यादि मुक्तिचतुष्टय को भी नहीं ग्रहण करते।

दुर्लभं श्रीहरेर्दास्यं भक्तिर्मुक्तेर्गरीयसी।

स्वप्नवत् सर्वमैश्वर्यं सद्भक्तिव्यवधायकम्।।

यों कहकर लोमशजी अन्यत्र चले गये। बालक भी वहीं अन्तर्धान हो गया। बेचारे इन्द्र का तो अब होश ही ठंडा हो गया। उन्होंने देखा कि जिसकी इतनी दीर्घ आयु है, वह तो एक घास की झोपड़ी भी नहीं बनाता, केवल चटाईसे ही काम चला लेता है, फिर मुझे कितने दिन रहना है, जो इस घर के चक्कर में पड़ा हूँ। बस, झट उन्होंने विश्वकर्माको एक लम्बी रकम के साथ छुट्टी दे दी और आप अत्यन्त विरक्त होकर किसी वनस्थली की ओर चल पड़े। पीछे वृहस्पतिजी ने उन्हें समझा-बुझाकर पुनः राज्यकार्य में नियुक्त किया।

(ब्रह्मवैवर्तपुराण)


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