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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।


इन्द्र का गर्व-भंग


शचीपति देवराज इन्द्र कोई साधारण व्यक्ति नहीं, एक मन्वन्तरपर्यन्त रहनेवाले स्वर्गके अधिपति हैं। घड़ी-घंटोंके लिये जो किसी देशका प्रधान मन्त्री बन जाता है, उसके नामसे लोग घबराते हैं, फिर जिसे एकहत्तर दिव्य युगोंतक अप्रतिहत दिव्य भोगोंका साम्राज्य प्राप्त है, उसे गर्व होना तो स्वाभाविक है ही। इसीलिये इनके गर्व-भंगकी कथाएँ भी बहुत हैं। दुर्वासाने इन्हें शाप देकर स्वर्गको श्रीविहीन किया। वृत्रासुर, विश्वरूप, नमुचि आदि दैत्योंके मारनेपर इन्हें बार-बार ब्रह्महत्या लगी।

वृहस्पति के अपमान पर पश्चात्ताप, बलि द्वारा राज्यापहरण पर दुर्दशा तथा गोवर्धनधारण एवं पारिजातहरण आदिमें भी कई बार इनका मानभंग हुआ ही है। मेघनाद, रावण, हिरण्यकशिपु आदिने भी इन्हें बहुत नीचा दिखलाया और बार-बार इन्हें दुष्यन्त, खट्वांग, अर्जुनादिसे सहायता लेनी पड़ी। इस प्रकार इनके गर्वभञ्जनकी अनेकानेक कथाएँ हैं, तथापि ब्रह्मवैवर्तपुराणमें इनके गर्वापहरणकी एक विचित्र कथा है, जो इस प्रकार है-

एक बार इन्द्रने एक बड़ा विशाल प्रासाद बनवाना आरम्भ किया। इसमें पूरे सौ वर्षतक इन्होंने विश्वकर्माको छुट्टी नहीं दी। विश्वकर्मा बहुत घबराये। वे ब्रह्माजीकी शरणमें गये। ब्रह्माजीने भगवान् से प्रार्थना की। भगवान् एक ब्राह्मणबालक का रूप धारणकर इन्द्र के पास पहुँचे और पूछने लगे-'देवेन्द्र! मैं आपके अद्भुत भवननिर्माण की बात सुनकर यहाँ आया हूँ। मैं जानना चाहता हूँ कि इस भवन को कितने विश्वकर्मा मिलकर बना रहे हैं और यह कबतक तैयार हो जायगा?'

इन्द्र बोले-'बड़े आश्चर्यकी बात है! क्या विश्वकर्मा भी अनेक होते हैं, जो तुम ऐसी बातें कर रहे हो?'

बटुरूपी प्रभु बोले-'देवेन्द्र! तुम बस इतने में ही घबरा गये? सृष्टि कितने ढंग की है, ब्रह्माण्ड कितने हैं, ब्रह्मा-विष्णु-शिव कितने हैँ, उन-उन ब्रह्माण्डों में कितने इन्द्र और विश्वकर्मा पड़े हैं-यह कौन जान सकता है? यदि कदाचित् कोई पृथ्वी के धूलिकणों को गिन भी सके, तो भी विश्वकर्मा अथवा इन्द्रों की संख्या तो नहीं ही गिनी जा सकती। जिस तरह जल में नौकाएँ दीखती हैं, उसी प्रकार महाविष्णु के लोमकूपरूपी सुनिर्मल जल में असंख्य ब्रह्माण्ड तैरते दीख पड़ते हैं।'

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