ई-पुस्तकें >> पौराणिक कथाएँ पौराणिक कथाएँस्वामी रामसुखदास
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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।
पक्षियोंने कहा-विपुलस्वान् नामके एक प्रसिद्ध महामुनि थे। उनके दो पुत्र हुए-सुकृष और तुम्बुरु। हम चारों यतिराज सुकृषके ही पुत्र हैं और सदा विनम्रतापूर्वक व्यवहार और भक्तिभावसे उन्हींकी सेवा-शुभूषामें लगे रहे हैं। तपश्चरणमें लीन अपने पिता सुकृष मुनिकी इच्छाके अनुसार हमने समिधा, पुष्प और भोज्य पदार्थ सब कुछ उन्हें समर्पित किया है। इस प्रकार जब हम वहाँ रहते रहे तब एक बार हमारे आश्रममें विशाल देहधारी टूटे पंखवाले वृद्धावस्थाग्रस्त ताम्रवर्णके नेत्रोंसे युक्त शिथिल-शरीर पक्षीके रूपमें देवराज इन्द्र पधारे। वे सुकृष ऋषिकी परीक्षा लेने आये थे। उनका आगमन ही हमलोगोंपर शापका कारण बन गया।
पक्षी-रूपी इन्द्रने कहा-'पूज्य विप्रवर! मैं बुभुक्षित हूँ। आप मेरी प्राणरक्षा करें। मैं भोजनकी याचना करता हूँ। आप ही हमारे एकमात्र उद्धारक हैं। मैं विन्ध्याचलके शिखरपर रहनेवाला हूँ, जहाँसे उड़ान भरनेवाले पक्षियोंके पंखोंकी वेगयुक्त वायुसे मैं नीचे गिर पड़ा। गिरनेके कारण मैं सप्ताहभर बेसुध पृथ्वीपर पड़ा रहा। आठवें दिन मेरी चेतना लौटी। तब क्षुधासे पीड़ित मैं आपकी शरणमें आया हूँ। मैं बड़ा दुःखी हूँ, मेरा मन बड़ा खिन्न है और मेरी प्रसन्नता नष्ट हो चुकी है। बस, मुझे भोजनकी अभिलाषा है। विप्रवर! आप मुझे कुछ खानेको दें, जिससे मेरे प्राण बच जायँ।'
ऐसा कहे जानेपर सुकृष ऋषिने पक्षिरूपधारी इन्द्रसे कहा-'प्राणरक्षाके लिये तुम जो भी भोजन चाहो, मैं दूँगा।' ऐसा कहकर ऋषिने फिर उस पक्षीसे पूछा-'तुम्हारे लिये मैं किस प्रकारके भोजनकी व्यवस्था करूँ?' यह सुनकर उसने कहा-'नर-मांस मिलनेपर मैं पूर्णरूपसे संतृप्त हो जाऊँगा।'
ऋषिने पक्षीसे कहा-तुम्हारी कुमारावस्था एवं युवावस्था समाप्त हो चुकी है, अब तुम बुढ़ापेकी अवस्थामें हो। इस अवस्थामें मनुष्यकी सभी इच्छाएँ दूर हो जाती हैं। फिर भी ऐसा क्यों है कि तुम इतने क्रूर-हृदय हो? कहाँ तो मनुष्यका मांस और कहाँ तुम्हारी अन्तिम अवस्था, इससे तो यही सिद्ध होता है कि दुष्टात्मा लोगोंमें कभी भी प्रशमभावना नहीं हो पाती। अथवा मेरा यह सब कहना निष्प्रयोजन है; क्योंकि जब मैंने वचन दे दिया तब तो तुम्हें भोजन देना ही है।
उससे ऐसा कहकर और नर-मांस देनेका निश्चय करके विप्रवर सुकृष ने अविलम्ब हमलोगोंको पुकारा और हमारे गुणों की प्रशंसा की। तत्पश्चात् उन्होंने हमलोगों से, जो विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़े बैठे थे, बड़ा कठोर वचन कहा-'अरे पुत्रो! तुम सब आत्मज्ञानी होकर पूर्णमनोरथ हो चुके हो, किंतु जैसे मुझपर अतिथि-ऋण है, वैसे ही तुमपर भी है; क्योंकि तुम्हीं मेरे पुत्र हो। यदि तुम अपने गुरु को जो तुम्हारा एकमात्र पिता है, पूज्य मानते हो तो निष्कलुष हृदय से मैं जैसा कहता हूँ वैसा करो।'
उनके ऐसा कहनेपर गुरुके प्रति श्रद्धालु हमलोगो के मुँहसे निकल पड़ा कि 'आपका जो भी आदेश होगा, उसके विषयमें आप यही सोचें कि उसका पालन हो गया।'
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