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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।

अन्तमें राजा शौरिके प्रतिज्ञा कर लेनेपर मन्त्री विश्ववेदीने उनके अन्यान्य भाइयोंको वशीभूत कर लिया और उनके पुरोहितोंको अपने यहाँ शान्तिकर्ममें नियुक्त कर खनित्रके अनिष्टके लिये अत्यन्त उग्र आभिचारिक (मन्त्र-तन्त्रादि) कर्मका अनुष्ठान प्रारम्भ करा दिया। उसने खनित्रके अन्तरंग विश्वासपात्र सेवकोंको अपनी ओर मिला लिया और ऐसी चालें चलीं, जिनसे शौरिका राजदण्ड अप्रबाधित हो जाय।

चारों पुरोहितोंके आभिचारिक प्रयोगसे चार भयानक कृत्याएँ उत्पन्न हुईं, जिन्हें देखकर ही छाती दहल जाती थी। वे हाथमें बड़े-बड़े शूल लिये हुए थीं। वे शीघ्रतापूर्वक खनित्रके पास गयीं, किंतु निष्पाप राजाके पुण्य-बलसे शीघ्र ही हतप्रभ हो गयीं। तब वे लौटकर उन चारों राजपुरोहितों और विश्ववेदीके निकट आयीं। उन्होंने शौरिको दुष्ट मन्त्रणा देनेवाले मन्त्री विश्रवेदी और उन पुरोहितोंको जलाकर भस्म कर दिया।

उस समय सभी लोगोंको इस बातसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि भिन्न-भिन्न नगरोंमें निवास करनेवाले सब-के-सब पुरोहित एक साथ कैसे नष्ट हो गये। महाराज खनित्रने जब अपने भाइयोंके पुरोहितों और एक भाईके मन्त्री विश्ववेदीके एकाएक भस्म हो जानेका समाचार सुना, तब उन्हें बडा दुःख हुआ। उन्होंने घरपर आये हुए महर्षि वसिष्ठसे भाइयोंके पुरोहितों और मन्त्रीके विनाशका कारण पूछा। तब महामुनि वसिष्ठने अन्तर्दृष्टिसे ज्ञात कर शौरि और उनके मन्त्रीमें जो बातचीत हुई थी तथा पुरोहितोंने जो कुछ किया था, वह सब वृत्तान्त कह सुनाया।

राजाने कहा-'मुने! मैं हतभागी और बड़ा अयोग्य हूँ। दैव मेरे प्रतिकूल है और मैं सब लोकोंमें निन्दित तथा पापी हूँ। मुझ अपुण्यात्माको धिक्कार है; क्योंकि मेरे कारण ही चार ब्राह्मणोंका विनाश हुआ है। अतः मुझसे बढ़कर भूमण्डलमें दूसरा पापी कौन हो सकता है?'

इस प्रकार पृथ्वीपति खनित्रने उद्विग्न होकर वनमें चले जानेकी इच्छासे अपने क्षुप नामक पुत्रका राज्याभिषेक कर दिया और पत्नियोंको साथ लेकर तपस्याके लिये वनमें गमन किया। उन नृपश्रेष्ठने वनमें जाकर वानप्रस्थ-विधानके अनुसार साढ़े तीन सौ वर्षोंतक तपस्या की। अन्तमें उन वनवासी राजाने तपस्याद्वारा अपने शरीरको क्षीण कर सब इन्द्रियोंका निरोध करते हुए प्राणोंका विसर्जन कर दिया। अन्यान्य नृपति सैकड़ों अश्वमेध-यज्ञ करके भी जिस लोकको प्राप्त नहीं कर सकते, खनित्रने मृत्युके पश्चात् उस सर्वाभीष्टप्रद पुण्य लोकको प्राप्त कर लिया।

(मार्कण्डेयपुराण)


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