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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।

उन्होंने भगवान् शंकरको शंखचूड़का संहार करनेके लिये एक त्रिशूल प्रदान किया और कहा कि 'शंखचूड़ मेरा मंगलमय कवच सदा धारण किये रहता है, जिससे कोई उसे मार नहीं सकता, अतः मैं स्वयं ही ब्राह्मणवेशमें उससे कवचके लिये याचना करूँगा। तब आपके द्वारा इस त्रिशूलके प्रहारसे उसी समय उसकी मृत्यु हो जायगी और तुलसी भी यह शरीर त्यागकर पुनः मेरी पत्नी बन जायगी।'

तदनन्तर देवताओंका अभ्युदय करनेके विचारसे भगवान् महादेवने चन्द्रभागातटपर एक मनोहर वट-वृक्षके नीचे अपना आसन जमाया और गन्धर्वराज चित्ररथको अपना दूत बनाकर शंखचूड़के पास यह संदेश भेजा कि 'या तो दानवराज देवताओंका राज्य और उनके अधिकारको लौटा दें अथवा युद्ध करनेके लिये प्रस्तुत हों।'

यह संदेश सुनकर शंखचूड़ने दूतसे हँसते हुए कहा-'तुम जाओ, मैं कल प्रातःकाल भगवान् शंकरके पास स्वयं आऊँगा।' इधर भगवान् शंकरकी प्रेरणासे उनके पुत्र कार्तिकेय और भद्रकाली आदि देवियाँ अस्त्र-शस्त्र लिये रणांगणमें पहुँच गयीं। उधर दूतके चले जानेपर शंखचूड़ने अन्तःपुरमें जाकर तुलसीसे युद्ध-सम्बन्धी बातें बतायीं, जिन्हें सुनते ही उसके होठ और तालू सूख गये। शंखचूड़ने उसे समझाया और कहा कि 'कर्मभोगका सारा निबन्ध कालसूत्रमें बँधा है, शुभ, हर्ष, सुख-दुःख, भय, शोक और मंगल सभी कालके अधीन हैं। तुम उन्हीं भगवान् श्रीहरिकी शरणमें जाओ, अब तुम्हें वे पतिरूपमें प्राप्त होंगे, जिन्हें पानेके लिये बदरी-आश्रममें तुमने तपस्या की है। मैं भी इस दानव-शरीरका परित्याग कर उसी दिव्यलोकमें चलूँगा। अतः शोक करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है।'

तुलसी कुछ आश्वस्त हुई और शंखचूड़ने ब्राह्ममुहूर्तमें शय्याको त्यागकर तथा नित्यकर्मको सम्पादित किया। तदनन्तर उसने एक महारथीको सेनापति-पदपर नियुक्त किया, फिर वह मन-ही-मन भगवान् श्रीकृष्णका स्मरण करते हुए उत्तम रत्नोंसे बने विमानपर सवार होकर चला। पुष्पभद्रा-नदीके तटपर सुन्दर अक्षयवटके नीचे उसने भगवान् शंकरको देखा। वे योगासन-मुद्रा लगाकर हाथमें त्रिशूल और पट्टिश धारण किये बैठे थे। दानवराज उन्हें देखकर विमानसे उतर पड़ा तथा सबके साथ भगवान् शंकरको उसने सिर झुकाकर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। शंकरजीके वामभागमें भद्रकाली विराजित थीं और सामने स्वामी कार्तिकेय थे। तीनोंने शंखचूड़को आशीर्वाद दिया।

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