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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।

फिर शंखचूड़ने भगवान् शंकरसे कहा कि 'आपको देवताओंका पक्ष लेना उचित नहीं है, आपके लिये हम दोनों समान हैं। हमारा-आपका युद्ध भी आपके लिये लज्जाकी बात होगी। हम विजयी होंगे तो हमारी कीर्ति अधिक फैल जायगी और पराजित होनेपर हमारी कीर्तिमें बहुत थोड़ा ही धब्बा लगेगा।'

शंखचूड़की बात सुनकर भगवान् त्रिलोचन हँसने लगे और उससे बोले कि 'या तो तुम देवताओंका राज्य लौटा दो अथवा मेरे साथ लड़नेको तैयार हो जाओ। इसमें लज्जाकी कोई बात नहीं है।' इसपर शंखचूड़ने भगवान् शंकरको प्रणाम किया और अपनी सेनाको युद्धके लिये आज्ञा दे दी। युद्ध प्रारम्भ हो गया। युद्धमें दानवोंने शंकरदलके बहुत-से वीरोंको परास्त कर दिया। देवता डरकर भाग चले। उसी समय स्वामिकार्तिकेयने गणोंको ललकारा और वे स्वयं भी दानवोंके साथ लड़ने लगे। दानव-सेना घबरा गयी। तभी शंखचूड़ने विमानपर चढ़कर भीषण बाण-वर्षा प्रारम्भ कर दी। फिर तो बड़ा भीषण युद्ध हुआ। दानवराजने मायाका आश्रय लेकर बाणोंका जाल फैला दिया। इससे स्वामिकार्तिकेय ढक-से गये।

अन्तमें भगवान् शंकर स्वयं अपने गणोंके साथ संग्राम में पहुँचे, उन्हें देखकर शंखचूड़ने विमानसे उतरकर परम भक्तिके साथ पृथ्वीपर मस्तक टेककर दण्डवत् प्रणाम किया। तदुपरान्त वह तुरंत रथपर सवार हो गया और भगवान् शंकरसे युद्ध करने लगा। लम्बी अवधितक दोनोंका युद्ध चला, पर कोई किसीसे न जीतता था न हारता था। तभी भगवान् श्रीहरि एक अत्यन्त आतुर बूढ़े ब्राह्मणका वेश धारणकर युद्धभूमिमें आये। उन्होंने शंखचूड़से उसके 'कृष्णकवच' के लिये याचना की। शंखचूड़ने परम प्रसन्नतापूर्वक कवच उन्हें दे दिया। इसी बीच भगवान् शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे भी मिल आये थे। इधर शंकरजीने भगवान् श्रीहरिका दिया हुआ त्रिशूल उठाकर हाथपर आजमाया और उसे शंखचूड़पर चला दिया। शंखचूड़ने भी सारा रहस्य जानकर अपना धनुष धरतीपर फेंक दिया और बुद्धिपूर्वक योगासन लगाकर भक्तिके साथ अनन्यचित्तसे भगवान् श्रीकृष्णके चरण-कमलका ध्यान करने लगा। त्रिशूल कुछ समयतक तो चक्कर काटता रहा। तदनन्तर वह शंखचूड़के ऊपर जा गिरा। उसके गिरते ही तुरंत वह दानवेश्वर तथा उसका रथ सभी जलकर भस्म हो गये।

दानव-शरीरके भस्म होते ही उसने एक दिव्य गोपका शरीर धारण कर लिया। इतनेमें अकस्मात् सर्वोत्तम दिव्य मणियोंद्वारा निर्मित एक दिव्य विमान गोलोकसे उतर आया तथा शंखचूड़ उसीपर सवार होकर गोलोकके लिये प्रस्थित हो गया।

शंखचूड़की हड्डियोंसे शंखकी उत्पत्ति हुई। वही शंख अनेक प्रकारके रूपोंमें देवताओंकी पूजामें अत्यन्त पवित्र माना जाता है, उसके जलको श्रेष्ठ मानते हैं। जो शंखके जलसे स्नान कर लेता है उसे सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नानका फल प्राप्त होता है। शंख साक्षात् भगवान् श्रीहरिका अधिष्ठान है। जहाँ शंख रहता है अथवा शंखध्वनि होती है, वहाँ भगवान् श्रीहरि भगवती लक्ष्मीसहित सदा निवास करते हैं और अमंगल दूरसे ही भाग जाता है।

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