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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।

देवदत्तके अथक प्रयासके बाद भी उतथ्यकी मूर्खतामें कोई अन्तर नहीं आया। यहाँतक कि देवदत्त बारह वर्षोंतक उसे पढ़ानेका प्रयास करते रहे, उसके उपरान्त भी उसे संध्या-वन्दन करनेकी विधितक मालूम न हो सकी। धीरे-धीरे सभी लोगोंमें इस बातका प्रचार हो गया कि उतथ्य मूर्ख है। जहाँ कहीं भी वह जाता, लोग उसका उपहास करते। बन्धु-बान्धव, सारी जनता उसकी निन्दा करने लगी। अन्तमें निराश होकर उसके माता-पिता भी उसे कोसते हुए कहने लगे-'यदि उतथ्य अन्धा या पंगु रहता तो ठीक था, परंतु मूर्ख पुत्र तो बिलकुल व्यर्थ है।' बन्धु-बान्धवों एवं माता-पिता आदिकी इन सब कटूक्तियोंसे ऊबकर एक दिन उतथ्य वनमें चला गया। जाह्नवीके तटपर एक पवित्र स्थानपर उसने एक कुटिया बना ली और वहीं रहने लगा। वह वनके फल-मूल खाकर अपना जीवन व्यतीत करता था। उसने अपने मन एवं इन्द्रियोंको वशमें करके 'कभी भी झूठ न बोलनेका' उत्तम नियम ले रखा था। इस प्रकार वह उस सुरम्य आश्रममें ब्रह्मचर्यपूर्वक अपना समय व्यतीत करने लगा।

उतथ्य न वेदाध्ययन जानता था, न किसी प्रकारका जप-तप ही। देवताओंके ध्यान एवं आराधनका भी उसे ज्ञान था। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और भूत-शुद्धि करनेकी विधिसे भी वह बिलकुल अनभिज्ञ था तथा कीलक मन्त्र एवं गायत्री-जप करना भी नहीं सीख पाया था। भोजनके समय प्राणाग्निहोत्र, बलिवैश्वदेव एवं अतिथिबलि और हवन आदिके नियमोंका भी उसे ज्ञान न था। वह प्रातःकाल उठता, दातौन करता और उसके पश्चात् बिना किसी मन्त्र के बोले ही गंगाकी पवित्र धारामें स्नान करता था। मध्याह्नकालमे वह जंगलसे फल एकत्र करके ले आता और इच्छानुसार उदरकी पूर्ति कर लेता। अच्छे-बुरे फलोंका भी उसे ज्ञान नहीं था। वह कभी किसीका अहित नहीं करता था और न अनुचित कर्ममें ही उसकी प्रवृत्ति थी। उसमें एक अनुपम दिव्य गुण था कि वह कभी भी असत्य-भाषण नहीं करता था, एक भी मिथ्या शब्द उसके मुखसे नहीं निकलता था-यह उसका अटूट व्रत था, जिसका वह सावधानीसे पालन करता था।

सत्यमें महान् तेज होता है। सदैव सत्य बोलनेसे वाक्-सिद्धि स्वतः ही प्राप्त हो जाती है।

सत्यस्व वचनं साधु न सत्याद्विद्यते परम्।

'सत्य बोलना श्रेष्ठ है, सत्यसे उत्तम और कुछ भी नहीं है।'

अविकारितमं सत्यं सर्ववर्णेषु भारत।

सत्यं सत्सु सदा धर्मः सत्यं धर्मः सनातनः।।

सत्यमेव नमस्येत सत्यं हि परमा गतिः।

सत्यं धर्मस्तपो योगः सत्यं ब्रह्म सनातनम्।।

सत्यं यज्ञः परः प्रोक्तः  सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्।

'सत्य सभी वर्णोंमें सदा विकाररहित है। सत्युरुषोंमें सदा सत्य रहता है। सत्य ही सनातन धर्म है। सत्य (रूप ईश्वर ही सबकी) परमगति है, अतएव सत्यको नमस्कार करना चाहिये। धर्म, तप, योग और सनातन ब्रह्म सत्य ही है। सत्य ही श्रेष्ठ यज्ञ कहा गया है। एकमात्र सत्यमें ही सब प्रतिष्ठित है।'

उतथ्यके सत्य बोलनेकी बात चारों ओर फैल गयी। इससे वहाँकी जनताने उसका नाम 'सत्यव्रत' रख दिया। सारी जनतामें उसकी कीर्ति फैल गयी कि यह सत्यव्रत है, कभी भी इसके मुखसे मिथ्या वाणी नहीं निकलती।

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