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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।


सत्यव्रत भक्त उतथ्य


प्राचीन कालमें कोसलदेशमे उतथ्यका जन्म एक विद्वान् ब्राह्मणके घर हुआ था। उसके पिताका नाम देवदत्त एवं माताका नाम रोहिणी था। उतथ्यके आठवें वर्षमें प्रवेश करते ही पिता देवदत्तने शुभ दिन एवं शुभ योग देखकर उसका यज्ञोपवीत-संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न करवाया। समयपर वेदाध्ययनके लिये उतथ्यको गुरुदेवके यहाँ भेजा गया परंतु वह ऐसा मूर्ख था कि एक शब्द भी उच्चारण नहीं कर सकता था। देवदत्तने अपने बालकको कई प्रकारसे पढ़ानेका प्रयत्न किया, परंतु सभी व्यर्थ सिद्ध हुए। उतथ्यकी बुद्धि किसी भी रीतिसे रास्तेपर नहीं आयी।

देवदत्तको पूर्वजन्मकी बात स्मरण हो आयी। उस जन्ममें वे सभी प्रकारसे सम्पन्न थे, परंतु उनके कोई संतान न थी। इस कारण दम्पतिके मनमें बड़ा दुःख था। पुत्र-प्राप्तिके लिये देवदत्तने विधिपूर्वक पुत्रेष्टि-यज्ञका आयोजन किया। सामवेदके गायक मुनिवर गोभिल यज्ञके उद्गाता थे। वे यज्ञमें स्वरित स्वरसे मन्त्रगान कर रहे थे। बार-बार साँस लेनेसे उनके मन्त्रोच्चारणमें कुछ स्वरभंग हो गया। स्वरभंग होते देखकर देवदत्तके मनमें आशंका हो गयी कि कहीं मेरी संतान-प्राप्तिकी मनोऽभिलाषामें बाधा न उत्पन्न हो जाय।

इस आशंकाने उनके विवेक को नष्ट कर दिया और वे मुनिवर पर कुपित होकर बोल उठे-'मुनिवर! आप महान् मूर्ख हैं, मेरे इस सकाम यज्ञ में आपने स्वरहीन मन्त्र क्यों उच्चारण किया?' यह सुनकर गोभिल मुनि क्रोधाविष्ट हो गये और बोले-'देवदत्त! तुम्हें शब्दशून्य नितान्त मूर्ख पुत्र प्राप्त होगा। तुमने मुझे अकारण कटु शब्द कहा है। श्वास-प्रश्वास लेते एवं छोड़ते समय यदि स्वरभंग हो जाय तो इसमें मेरा क्या दोष है?' महात्मा की उपर्युक्त बातें सुनकर देवदत्तको बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने सोचा कि वेदहीन मूर्ख पुत्र को लेकर मैं क्या करूँगा। वेदहीन ब्राह्मण शूद्र के समान होता है।

देवदत्त यह भी जानते थे कि वेदज्ञ ब्राह्मण जिसका अन्न खाकर वेदपाठ करते हैं, उसके पूर्वज स्वर्गमें रहकर अत्यन्त आनन्दके साथ क्रीडा करते हैं। मूर्ख ब्राह्मण सभी कर्मकाण्डोंके सम्पादनमें अनधिकारी होता है। यह सब सोच-सोचकर देवदत्त गोभिलजीके चरणोंमें पड़कर क्षमा-याचना करने लगे। देवदत्त बोले-'मुनिवर! मुझे क्षमा करें, मुझपर प्रसन्न हों, मैं मूर्ख पुत्रको लेकर क्या करूँगा।'

महात्माओंका क्रोध क्षणभरमें शान्त हो जाता है। जलका स्वाभाविक गुण है शीतल रहना। जल आगके संयोगसे भले ही गरम हो जाय, परंतु आगका संयोग हटते ही वह तुरंत शीतल हो जाता है। उसी तरह गोभिल मुनि तुरंत शान्त हो गये एवं प्रसन्न होकर बोले-'देवदत्त! तुम्हारा पुत्र एक बार मूर्ख भले ही हो, परंतु बादमें वह बहुत बड़ा विद्वान् होगा।'

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