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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।

भगवत्पार्षदोंने तनिक फटकार दिया-'तुम धर्मराजके सेवक सही हो, किंतु तुम्हें धर्मका ज्ञान ही नहीं है। जानकर या अनजानमें ही जिसने 'भगवान् नारायण' का नाम ले लिया, वह पापी रहा कहाँ? संकेतसे, हँसीमें, छलसे, गिरनेपर या और किसी भी बहाने लिया गया भगवन्नाम जीवके जन्म-जन्मान्तरके पापोंको वैसे ही भस्म कर देता है, जैसे अग्निकी छोटी चिनगारी सूखी लकड़ियोंकी महान् ढेरीको भस्म कर देती है। इस पुरुषने पुत्रके बहाने सही, नाम तो नारायण प्रभुका लिया है, फिर इसके पाप रहे कहाँ? तुम एक निष्पापको कष्ट देनेकी धृष्टता मत करो।'

यमदूत क्या करते, वे अजामिलको छोड़कर यमलोक आ गये और अपने स्वामीके सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो गये। उन्होंने उन धर्मराजसे ही पूछा-'स्वामिन्! क्या विश्वका आपके अतिरिक्त भी कोई शासक है? हम एक पापीको लेने गये थे। उसने अपने पुत्र नारायणको पुकारा, किंतु उसके 'नारायण' कहते ही वहाँ कई तेजोमय सिद्ध पुरुष आ धमके। उन सिद्धोंने आपके पाश तोड़ डाले और हमारी बड़ी दुर्गति की। वे अन्ततः हंउ कौन, जो निर्भय आपकी भी अवज्ञा करते हैं?'

दूतोंकी बात सुनकर यमराजने हाथ जोड़कर किसी अलक्ष्यको मस्तक झुकाया। वे बोले-'दयामय भगवान् नारायण मेरा अपराध क्षमा करें। मेरे अज्ञानी दूतोंने उनके जनकी अवहेलना की है।' इसके पश्चात् वे दूतोंसे बोले-'सेवको! समस्त जगत्के जो आदिकारण हैं, सृष्टि-स्थिति-संहार जिनके भ्रूभंगमात्रसे होता है, वे भगवान् नारायण ही सर्वेश्वर हैं। मैं तो उनका क्षुद्रतम सेवकमात्र हूँ। उन नारायण भगवान् के नित्य सावधान पार्षद सदा-सर्वत्र उनके जनोंकी रक्षाके लिये घूमते रहते हैं। मुझसे और दूसरे समस्त संकटोंसे वे प्रभुके जनोंकी रक्षा करते हैं।'

यमराजने बताया-'तुमलोग केवल उसी पापी जीवको लेने जाया करो, जिसकी जीभसे कभी किसी प्रकार भगवन्नाम न निकला हो, जिसने कभी भगवत्कथा न सुनी हो, जिसके पैर कभी भगवान् के पावन लीलास्थलोंमें न गये हों अथवा जिसके हाथोंने कभी भगवान् के श्रीविग्रहकी पूजा न की हो। यमदूतोंने अपने स्वामीकी यह आज्ञा उसी दिन भलीभांति रटकर स्मरण कर ली, क्योंकि इसमें प्रमाद होनेका परिणाम वे भोग चुके थे।

यमदूतोंके अदृश्य होते ही अजामिलकी चेतना सजग हुई, किंतु वह कुछ पूछे या बोले, इससे पूर्व ही भगवत्पार्षद भी अदृश्य हो गये। भले भगवत्पार्षद अदृश्य हो जायँ किंतु अजामिल उनका दर्शन कर चुका था। यदि एक क्षणके कुसंगने उसे पापके गड्ढेमें ढकेल दिया था तो एक क्षणके सत्संगने उसे उठाकर ऊपर खड़ा कर दिया। उसका हृदय बदल चुका था। आसक्ति नष्ट हो चुकी थी। अपने अपकर्मोंके लिये घोर पश्चात्ताप उसके हृदयमें जाग्रत् हो गया।

तनिक सावधान होते ही अजामिल उठा। अब जैसे इस परिवार और इस संसारसे उसका कोई सम्बन्ध ही न था। बिना किसीसे कुछ कहे वह घरसे निकला और चल पड़ा। धीरे-धीरे वह हरिद्वार पहुँच गया।

वहाँ भगवती पतितपावनी भागीरथीमें नित्य स्नान और उनके तटपर ही आसन लगाकर भगवान् का सतत भजन-यही उसका जीवन बन गया।

आयुको तो समाप्त होना ही ठहरा, किंतु जब अजामिलकी आयु समाप्त हुई, वह मरा नहीं। वह तो देह त्यागकर मृत्युके चंगुलसे सदाको छूट गया। भगवान् के वे ही पार्षद विमान लेकर पधारे और उस विमानमें बैठकर अजामिल भगवद्धाम चला गया।

(श्रीमद्धागवतपुराण)


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